आज का युग छोटे-बड़े उद्योगों का युग है। इसी कारण कुछ वर्ष दबी रहने के बाद कुटीर उद्योग या लघु उद्योग की चर्चा आज भारत में एक बार पुन: बल पकड़ रही है। इस प्रकार के उद्योग-धंधों के मूल में ऐसे घरेलू किस्म के छोटे-छोटे काम-धंधों की परिकल्पना छिपी है, जिन्हें छोटे से स्थान पर थोड़ी पूंजी और श्रम से स्थापित कर कोई भी व्यक्ति उत्पादन का भागीदार बन अपनी रोजी-रोटी की समस्या हल कर सकता है, बेकारी से लडक़र सामान्य स्तर पर अच्छा जीवन जी सकता है। कुछ अन्य बेकारों के लिए भी रोजगार के अवसर उपलब्ध करा सकता है। भारत जैसे गरीब, अल्पविकसित और अल्प साधनों वाले देश के लिए इस प्रकार के छोटे उद्योग-धंधे ही हितकर हो सकते हैं, यह बात राष्ट्रपित गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में ही जान ली थी और स्वतंत्र भारत में उसी प्रकार की इकाइयां स्थापित करने और स्वेदीश साधनों से परंपरागत उद्योगों का नवीनीकरण करने की प्रेरणा दी थीं। पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे नेताओं ने इस ओर कतई ध्यान नहीं दिया। बड़े-बड़े उद्योग-धंधे यहां पनपे और वह भी समर्थ लोगों की नीजी संपति बनकर रह गए। इधर बढ़ती जनसंख्या, शिक्षा का प्रचार, जागृति, अधिकारों की मांग और पहचान, बेकारों की निरंतर लंबी होती पंक्तियां, इन सबने आज के जागरुक चिंतकों को विवश कर दिया है कि देर से ही सही, देश की इस प्रकार की बढ़ती समस्याओं से निपटने के लिए गांधीवादी सूत्रों को अपनांए कि जो समय के अनुरूप देश की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। परिणामस्वरूप आज देश में कुटीर उद्योगों का जाल सा एक बार फिर से फैलता हुआ नजर आने लगा है।
आज नगर और गांव दोनों स्तरों पर अनेक प्रकार के घरेलू उद्योग स्थापित हो रहे हैं। वह उपयुक्त उद्योग के चुनाव, उसके लिए तकनीकी ज्ञान, उपकरण और आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करा रही है। एक विशेश बात यह भी है कि सरकार ने कुछ विशेष प्रकार के उत्पादनों को बड़े उद्योगों की सीमा से बाहर और सिर्फ छोटे उद्योगों के लिए सीमित कर दिया है। इस प्रकार आज के अनेक लघु उद्योग वास्तव में बड़े उद्योगों के पूरक और सहकारी बनकर पनप रहे हैं। उनके लिए उचित हाट-बाजार की भी व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अंतर्गत लघु उद्योगों का उत्पादन बड़े उद्योग खरीदकर प्रयोग में लाते हैं। परिणामस्वरूप इन्हें चलाना आज कोई समस्या या घाटे का सौदा नहीं रह गया।
वास्तव में कुटीर-उद्योगों की स्थापना का उद्यमी लोगों को बहुत लाभ पहुंच रहा है। बहुत सारे बेकार शिक्षित या अर्धशिक्षित, तकनीकी ज्ञान रखने वाले लोग सरकारी सहायता या निजी साधनों से इस प्रकार के उद्योग स्थापित कर अपनी बेकारी की समस्या तो हल कर ही पा रहे हैं, कई अन्य बेकारों के लिए भी काम मुहैया कर रहे हैं। धीरे-धीरे इनका क्षेत्र और विस्तार बढ़ रहा है। इनका महत्व भी लोगों पर उजागरर होता जा रहा है। इसके सुफल और सुपरिणाम भी हमारे सामने आ रहे हैं। यही कारण है कि आज नगरों, महानगरों की गलियों, मोहल्लों में तो इनकी भरमार हो ही रही है, हमारे गांव-क्षेत्र भी इस प्रकार के उद्योग स्थापित कर अपनी समसयाओं से लड़ रहे हैं। एक कटु सत्य यह भी है कि गांवों में पनपकर इस प्रकार के मशीनी लघु-उद्योग अनेक प्रकार की नई समस्यांए उत्पन्न करने लगे हैं पर घबराने की नहीं, साहस के साथ उन सबका मुकाबला करने की आवश्कयता है।
ग्रामों में इस प्रकार के उद्योग-धंधे स्थापित करने की आवश्यकता मुद्दत से महसूस की जा रही थी, क्योंकि वहां खेती-बाड़ी का काम बारहों महीने नहीं चला करता। अक्सर आधा साल लोग बेकार रहा करते हैं। बेकार मन भूतों का डेरा यह कहावत चरितार्थ होती है उनके छोटी-छोटी बातों से उत्पन्न झगड़ों में। फिर शिक्षा-प्रचार के कारण ग्राम-युवक पढ़-लिख या तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर हमेशा नौकरी तो पा नहीं सकते। अत: वहां मुर्गी-पालन, भेड़-पालन, मधुमक्खी पालन, दुज्धोत्पादन जैसे लघु उद्योग तो शुरू किए ही जा सकते हैं। छोटे-मोटे कल-पुर्जों, खिलौने आदि बनाने के भी काम हो सकते हैं। धीरे-धीरे उनका विस्तार भी हो सकता है। प्रसन्नता की बात है कि आज गांव के युवा अपनी कल्पना और ऊर्जा का उपयोग इस दिशा में करने लगा है। इससे नगरों की भीड़ भी कम होगी। ग्राम-जनों को रोजगार के साधन वहीं मिल सकेंगे। अपने घर-परिवेश में रहकर व्यक्ति जो कुछ कर सकता है, अन्यत्र नहीं। अत: इस ओर और भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। वह दिया भी जाने लगा है, इसे सुखद स्थिति और सुखद भविष्य का सूचक मानकर सुख-संतोष का अनुभव कर सकते हैं।
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