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Thursday, January 2, 2020

वृक्षारोपण या वन-महोत्सव Vriksharopan ya Van-Mohotsav 780 words hindi essay

January 02, 2020
वृक्ष समस्त प्राणी जगत के श्रेष्ठ साथी और सहचर माने गए हैं। वृक्षों के समूह को वन, उपवन, जंगल कुछ भीकहकर पुकारा जा सकता है। वृक्षों को प्रकृति के राजकुमार और वनों, उपवनों या जंगलों को उनकी जन्मभूमि कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में वृक्षों के समूह से ही वन बनते हैं और वन प्रकृति के जीवनदाययक सौंदर्य का साकार रूप हुआ  करते हैं। वृक्ष और वन हमें अनेक प्रकार के फल-फूल, छाया, लकड़ी हवा आदि तो देते ही हैं, जिसे हम प्राणवायु या जीवनदायिनी शक्ति कहते हैं, उसका स्त्रोत भी वास्तव में वन और वृक्ष ही हैं। इतना ही नहीं, धरती और उस पर स्थित अनेक रंग-रूपों वाली सृष्टि का आज तक जो संतुलन बना हुआ है, उसका मूल कारण भी वन और वृक्ष ही हैं। धरती पर लगे कल-कारखाने या अन्य प्रकार के तत्व जो अनेक प्रकार के प्रदूषित तत्व, गंदी हवांए, दमघोंटू गैसें या इसी प्रकार के अन्य विषैले तत्व उगलते रहते हैं, समस्त मानव-जीवन और प्राणी जगत की उन सबसे रक्षा भी निश्चय ही वन और वृक्ष ही कर रहे हैं। उनका अभाव सर्वनाश का कारण बन सकता है यह तथ्य सभी लेग मुक्तभाव से स्वीकार करते हैं।
वनों-वृक्षों का महत्व मात्र इतना ही नहीं है। हमारे लिए अन्न-जल की व्यवस्था सांस ले पाने का सुप्रबंध भी यही करते हैं। वर्षा का कारण भी ये वन-वृ़क्ष ही हैं जो धरती को हरियाली प्रदान कर, अन्न-जल का उत्पदान कर हमारा भरण-पोषण करते हैं। सोचिए, यदि वर्षा न हो तो एक दिन सारी नदियां, कुंए और पानी के स्त्रोत सूख जाएंगे। समुद्र तक अपना अस्तित्व खो बैठेगा। धरती बंजर और फिर धीरे-धीरे राख का ढेर बनकर रह जाएगी। स्पष्ट है कि वन और वृक्षों का अस्तित्व धरती और उस पर हने वाले प्राणी जगत के लिए कितना महत्वपूर्ण और आवश्यक है। उनका अभाव जो स्थिति ला सकता है, उसकी कल्पना अत्यंत लोमहर्षक है।
वनों, वृक्षों का महत्व जानते-समझते हुए भी आज हम कुछ पैसें के लोभ के लिए उन्हें काटकर जलाते, बेचते या अन्य तरह से प्रयोग करते जाते हैं। इससे नदियों, पर्वतों आदि का संतुलन तो बिगडृ ही रहा है प्रकृति ओर सारे जीवन का संतुलन भी बिगडक़र प्रदूषण का प्रकोप निरंतर बढ़ता जा रहा है। गीले पर्वतों और जल स्त्रोंतों के अपासपास उगे वनों-वृ़क्षों को काट डालने का यही परिणाम है कि अब बाढ़ों का प्रकोप कहीं अधिक झेलना पड़ता है। मौसम में वर्षा नहीं होती, जिससे सूखे के थपेड़े सहने पड़ते हैं। वन-वृक्ष अवश्य काटने और उनकी लकड़ी हमारे उपयोग के लिए ही है, पर हमारा यह भी तो कर्तव्य बन जाता हेह्व कि यदि एक वृक्ष काटते हैं तो उसके स्थान पर एक अन्य उगांए भी। परंतु हम तो वनों को मैदानों और बस्तियों के रूप में बदलते जा रहे हैं। आखिर ऐसा कब तक चल सकेगा? निश्चय ही अधिक चलने वाला नहीं, इस बात को आज के ज्ञानी-विज्ञानी मानव ने अच्छी प्रकार समझ लिया है। तभी तो आज न केवल हमारे देश बल्कि विश्व के सभी देशों में वृक्ष लगाने की प्रक्रिया वन महोत्सव के रूप में मनाई जाने लगी है। पेड़ उगा, वनों को फिर से उगा हम उन पर नहीं, बल्कि अपने पर ही कृपा करेंगे। अपनी भाव सुरक्षा को योजना ही बनाएंगे।
भारत में वनों-व़क्षों की कटाई अंधाधुंध हुई है। फलत: प्राकृतिक संतुलन बिगड़ चुका है। इसे जान लेने के बाद ही आज हमारे देश में प्रगति और विकास के लिए सरकारी या संस्थागत रूप में जो अनेक प्रकार के कार्यक्रम चल रहे हैं, वृक्ष उगाना और वन-संवर्धन भी उनमें से एक प्रमुख कार्य है। प्राय: हर वर्ष लाखों-करोड़ों की संख्या में वृक्षों वनों की पौध रोपी जाती है। पर खेद के साथ कहना पड़ता है पौध-रोपन के बाद हम अपना कर्तव्य भूल जाते हैं। रोपित पौध का ध्यान नहीं रखते। उसे या तो आवारा जानवर चर जाते हैं या पानी के अभाव में सूख-मुरझाकर समाप्त हो जाते हैं। यदि सचमुच हम चाहते हैं कि मानव-जाति और उसके अस्तित्व की आधार-स्थली धरती, प्रकृति का संतुलना बना रहे, तो हमें काटे जा रहे पेड़ों के अनुपात से कहीं अधिक पेड़ उगाने होंगे। उनके संरक्षण एंव संवद्र्धन का प्रयास भी करते रहना होगा। अनावश्यक वन-कटाव कठोरता से रोकना होगा। इसके सिवा समस्त प्राणी जगत रक्षा और प्रकृति का संतुलन बनाए रखने का अन्य कोई चारा या उपाय नहीं।
इस प्रकार वृक्ष रोपण या वन-महोत्सव का महत्व स्पष्ट है। हमने सार्थक रूप से वन-महोत्सव आज इसलिए मना और उसके साथ जुड़ी भावना को साकार करना है, ताकि मानव-जीवन भविष्य में भी हमेशा आनंद-उत्सव मना सकने योज्य बना रह सके। वह स्वंय ही घुटकर दम तोडऩे को बाध्य न हो जाए। सजग-साकार रहकर फल-फूल सके। प्रगति एंव विकास के नए अध्याय जोड़ सके और बन सके मानवता का नवीन, सुखद इतिहास।

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