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Thursday, January 2, 2020

शिक्षा और रोजगार Shiksha Aur Rojgar 700 words hindi essay

January 02, 2020

सामान्य रूप से कहा और माना जा सकता और माना भी जाता है कि शिक्षा और रोजगार का आपस में कोई संबंध नहीं है। शिक्षा का मूल प्रयोजन और उद्देश्य व्यक्ति की सोई शक्तियां जगाकर उसे सभी प्रकार से योज्य और समझदार बनाना है। रोजगार की गारंटी देना शिक्षा का काम या उद्देश्य वास्तव में कभी नहीं रहा, यद्यपि आरंभ से ही व्यक्ति अपनी अच्छी शिक्षा-दीक्षा के बल पर अच्छे-अच्छे रोजगार भी पाता आ रहा है। परंतु आज पढऩे-लिखने या शिक्षा पाने का अर्थ ही यह लगाया जाने लगा है कि ऐसा करके व्यक्ति रोजी-रोटी कमाने के योज्य हो जाता है। दूसरे शब्दों में आज शिक्षा का सीधा संबंध तो रोजगार के साथ जुड़ गया है, पर शिक्षा को अभी तक रोजगारोन्मुख नहीं बनाया जा सका। स्कूलों-कॉलों में जो और जिस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, वह व्यक्ति को कुछ विषयों के नामादि स्मरण कराने या साक्षर बनाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप साक्षरों के लिए क्लर्की, बाबूगीरी आदि के जो थोड़े या धंधे, नौगरियां आदि हैं, व्यक्ति पा जाता है। या फिर टंकण और आशुलिपि आदि का तकनीकी ज्ञान पाना आवश्यक होता है, तब कहीं जाकर बाबूगीरी की नौकरी या रोजगार मिल पाता है। तात्पर्य यह है कि आमतौर पर स्कूल-कॉलेजों की वर्तमान शिक्षा रोजगार पाने में विशेष सहायक नहीं होती। या सबके लिए तो सहायक नहीं हो पाती अत: उसे रोजगारोन्मुखी बनाया जाना चाहिए। आज सभी समझदार इस तथ्य को पूर्ण शिद्दत के साथ महसूस करने लगे हैं।
स्कूल कालेजों में कुछ विषय रोजगारोन्मुख पढ़ाए जाते हें। कॉमर्स, साइंस आदि विषय ऐसे ही हैं, इनके बल पर रोजगार के कुछ अवसर उपलब्ध हो जाते हैं। साइंस के विद्यार्थी इंजीनियरिंग और मेडिकल आदि के क्षेत्रों में अपनी शिक्षा को नया रूप देकर रोजगार के पर्याप्त अवसर पा जाते हैं। फिर और कई तरह के से भी आज तकनीकि-शिक्षा की व्यवस्था की गई है। उसे विस्तार भी दिया जा रहा है। पॉलिटेकनिक, आई.टी.आई. जैसी संस्थांए इस दिशा में विशेष सक्रिय हैं। इनमें विभिन्न टेड्स या कामधंधों, दस्तकारियों से संबंधित तकनीकी शिक्षा दी जाती है। उसे प्राप्त कर व्यक्ति स्व-रोजगार योजना भी चला सकता है और विभिन्न प्रतिष्ठानों में अच्छेरोजगार के अवसर भी प्राप्त कर सकता है। समस्या तो उनके लिए हुआ करती है, जिन्होंने शिक्षा के नाम पर केवल साक्षरता और उसके प्रमाण-पत्र प्राप्त किए होते हैं। निश्चय ही उन सबके लिए उनके बल पर रोजगार के अवसर इस देश में तो क्या, सारे विश्व में ही बहुत कम अथवा नहीं ही हैं।
व्यवहार के स्तर पर यों भी हमारे देश में अंग्रेजों की दी हुई जो घिसी-पिटी शिक्षा-प्रणाली चल रही है, वह अब देश-काल की आवश्यकताओं, मांगां के अनुरूप और इच्छा-आकांक्षाओं को पूर्ण कर पाने में समर्थ नहीं रह गई है। अत: उसमें सुधार लाया जाना आवश्यक है। सुधार लाते समय इस बात का ध्यान रखा जा सकता है कि रोजगारोन्मुख कैसे बनाया जाए? देश-विदेश में आज जो भिन्न प्रकार के तकनीक विकसित हो गए या हो रहे हैं, उन सबको शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए। कविता, कहानी और साहित्यिक विषयों का भाषा-शास्त्र आदि का गूढ़-ज्ञान केवल उन लोगों के लिए सुरक्षित रखा जाना  चाहिए जो इन विषयों में स्वतंत्र ओर गहरी अभिरूचित रखते हैं। अब जब शिक्षा का उद्देश्य रोजगार पाना बन ही गया है तो पुरारे ढर्रे पर चलते जाकर लोगों का धन, समय और शक्ति नष्ट करने, उन्हें मात्र साक्षर बनाकर छोड़ देने का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा करना अन्याय और अमानवीय है। यह राष्ट्रीय हित में भी नहीं है। इसको रोकने या दूर करने के लिए यदि हमें वर्तमान शिक्षा-जगत का पूरा ढांचा भी क्यों न बदलना पड़े, बदल डालने से रुकना या घबराना नहीं चाहिए। यही समय की पुकार और युग की मांग है।
समय और परिस्थितियों के प्रभाव के कारा अब शिक्षा का अर्थ और प्रयोजन व्यक्ति की सोई शक्तियां जगाकर उसे ज्ञानवान और समझदार बनाने तक ही सीमित नहीं रह गया है। बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य के लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था करना भी हो गया है। पर खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हमारे देश में सर्वाधिक उपेक्षा का क्षेत्र शिक्षा ही है। सरकारी बजट में सबसे कम राशि शिक्षा के लिए ही रखी जाती है। शिक्षालय अभावों में पल और ज्यों-ज्यों जी रहे हैं। इसे स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं कहा सकता।

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