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Monday, January 28, 2019

सत्यमेव जयते hindi essay on satyamev jayte 690 words

January 28, 2019
Satyamev Jayate


‘सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय सांच है, ताकि हिरदय आप।।’
संत कबीर द्वाारा सचे गए इस सूक्ति परक दोहे का सीधा और सरल अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि इस नाशवान और तरह-तरह की बुराईयों से भरे विश्व में सच बोलना सबसे बड़ी सहज-सरल तपस्या है। सत्य बोलने, सच्चा व्यवहार करने सत्य मार्ग पर चलने से बढक़र और कोई तपस्या है, न ही हो सकती है। इसके विपरीत जिसे पाप कहा जाता है। बात-बात पर झूठ बोलते रहना, छल-कपट और झूठ से भरा व्यवहार तथा आचरण करना उन सभी से बड़ा पाप है। जिस किसी व्यक्ति के हृदय में सत्य का वास होता है। ईश्वर स्वंय उसके हृदय में निवास करते हैं। जीवन के व्यावहारिक सुख भोगने के बाद अंत में वह आवागमन के मुश्किल से छुटकारा भी पा लेता है। इसके विपरीत मिथ्याचरण-व्यवहार करने वाला, हर बात में झूठ का सहारा लेने वाला व्यक्ति न तो चिंताओं से छुटकारा प्राप्त कर पाता है न प्रभु की कृपा का अधिकार ही बना सकता है। उसका लोग तो बिगड़ता ही है, वह परलोक-सुख एंव मु ित के अधिकार से भी वंचित हो जाया करता है।
सत्य-व्यवहार एंव वचन को आखिर तप क्यों कहा गया है? इस प्रश्न का उत्तर सहज-सरल है कि विश्व में प्रेम और सत्य मार्ग पर चल पाना खांडे की धार पर चल पाने समान कठित हुआ करता है। सत्य के साधक और व्यवहारक के सामने हर कदम पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके अपने भी उस सबसे घबराकर अक्सर साथ छोड़ दिया करते हैं। सब प्रकार के दबाव और कष्ट झेलते हुए सत्य के साधक और उपासक को अपनी राह पर अकेले ही चलना पड़ता है। जो सत्यराधक इन सबकी चिंता न करते हुए भी अपनी राह पर दृढ़ता से स्थिर-अटल रह निरंतर बढ़ता रहता है। उसका कार्यकिसी भी प्रकार तप करन से कम महथ्वपूर्ण नहीं रेखांकित किया जा सकता। इन्हीं सब तथ्यों के आलोक के सत्य के परम आराधक कवित ने व्यापक एंव प्रथ्यक्ष अनुभव के आधार पर सत्य को सबसे बड़ा तप उचित ही कहा है।
इसके बाद अनुभव-सिद्ध आधार पर ही कवि सूचित के दूसरे पक्ष पर आता है। दूसरे पक्ष में उसने ‘झूठ बराबर पाप’ कहकर झूठ बोलने या मिथ्या व्यवहार करने का संसार का सबसे बड़ा पाप कहा है। गंभीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि कथन में वजन तो है ही, जीवन समाज का बहुत बड़ा यथार्थ भी अंतिर्निहित है। यदि व्यक्ति अपनी बुराई को छिपाता नहीं, बल्कि स्वीकार कर लेता है, तो उसमें सुधार की प्रत्येक संभावना बनी रहती है। लेकिन मानव अपने स्वभाव से बड़ा ही कमजोर और डरपोक हुआ करता है। वह बुराई को छिपाने के लिए अक्सर झूठ का सहारा लिया करता है। जब एक बार कोई झूठ बोलता है तो उसे छिपाने के लिए उसे एक-के-बाद-एक निरंतर झूठ की राह पर बढ़ते जाने के लिए विवश होते जाना पड़ता है। फिर किसी भी प्रकार झूठों और झूठे व्यवहारों से पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाया करता है। मनुष्य सभी का घृणा का पात्र बनकर रह जाता है। जीवन एक प्रकार का बोझ साबित होने लगता है। इन्हीं सब व्यवहार मूलक तथ्यों के आलोक में सत्य के शोधक संत कवि ने झूठ को सबसे बड़ा पाप उचित ही ठहराया है।
इस विवेचन-विश्लेषण से यह भी स्पष्ट संकेत मिलता है कि मनुष्य का हर तरह का व्यवहार सदैव सत्य पर आधारित रहना चाहिए। झूठ का सहारा कभी भूल कर भी नहीं लेना चाहिए। गलती हो जाने पर यदि व्यक्ति सब कुछ सच-सच प्रकट कर देता है तो उसके सुधार की प्रत्येक संभावना उसी प्रकार बनी रह सकती है कि जिस प्रकार डॉक्टर के समक्ष रोग प्रकट हो जाने पर उसका उपचार संभव हो जाया करता है। यदि रोग प्रकट नहीं होगा, तो भीतर ही भीतर व्यक्ति की देह को सड़ा-गलाकर नष्ट कर देगा। उसी प्रकार यदि झूठ का सहारा लेकर बुराई को दिपाया जाएगा, तो जीवन पिऊर असत्य व्यवहारों का पुलिंदा बनकर रह जाएगा। बुराइयों का परिहार कभी कतई संभवन नहीं हो पाएगा। इसलिए जीवन को झूठ के सहारे पाप का जीवंत नहीं बनने दीजिए। सत्य के तप से तपाकर कुंदन और लोक-परलोक का स्वर्ग बनाइए। इसलिए ही तो मनुष्य देह मिली है। इसकी सफलता-सार्थकता भी इसी तथ्य में है।

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