कवि ने कहा है- करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान।
अर्थात् कुएँ के पत्थर पर बार-बार रस्सी को खींचने से निशान पड़ जाते हैं, इसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्विमान हो सकता है।
नन्ही सी चींटी भोजन का ग्रास ले जाने के लिए परिश्रम करती है। अनेकों बार दाना उसके मुँह से छूटता है जिसे वह बार-बार उठाती है और आगे बढ़ती है, वह हार नहीं मानती, निराश नहीं होती बल्कि परिश्रम करती रहती है और अंत में अपने बिल तक पहुँच ही जाती है। जब पशु-पक्षी परिश्रम से अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो सकते हैं तो मानव की बुद्वि सम्पन्न, चेतना संपन्न और क्रियाशील प्राणी है। उसके लिए भला कोई भी कार्य असंभव कैसे हो सकता है।
सभी कार्य उद्योग करने से ही सिद्व होते हैं, केवल मनोरथ से नहीं। सोये हुए शेर के मुँह में अपने आप पशु प्रविष्ट नहीं हो जाते बल्कि उसे भी जागकर अपने शिकार के लिए, भोजन के लिए परिश्रम करना पड़ता है।
प्राचीन काल में न तो मानव ने इनती उन्नति की थी न ही पृथ्वी आज के समान थी। धीरे-धीरे मानव ने अपने प्रयत्नों से इसे सुन्दर बनाया। कर्म के कारण ही आज विश्व इस प्रकार प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है।
तुलसी ने कहा है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भी पाता है। कर्म विहीन मानव जीवन निष्क्रिय हो जाता है, कर्म केवल शारीरिक या सांसरिक सुखों की ही पूर्ति के लिए आवश्यक नहीं है बल्कि मानसिक, बौद्विक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी कर्म उतना ही आवश्यक है।
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