साहित्य का अध्ययन क्यों
साहित्य को साहित्य इसलिए कहा गया है कि उसमें बुनियादी तौर पर मानव-जीवन और समाज के ‘हित’ का भाव स्वत: ही अंतर्हित रहा करता है। वह मनुष्यों की आत्मा को एक करने वाली कोमल-कांत कड़ी का काम भी किया करता है। वह हमारी कोमल-कांत भावनाओं को सहलाया ही करता है, हमारे जीवन को सहज व्यवहारों की सीख भी दिया करता है। जीवन के सामने समय-समय पर आने वाले प्रश्नों के समाधान प्रस्तुत करने में भी सत्साहित्य कभी पीछे नहीं रहा करता। ‘सत्साहित्य का अध्ययन क्यों करना चाहिए। ऊपर बताई गई बातों से इस क्यों का उत्तर मिल नहीं जाना चाहिए क्या?’ निश्चय ही उपर्युक्त सभी बातें मानव-कल्याण एंव कलात्मक जीवन जी सकने के लिए आवश्यक हुआ करती है। सो इन्हें जीवन-व्यवहारों से ग्रहण कर, अपनी सुंदर-सुखद कल्पनाओं से सजा-संवारकर सत्साहित्य वे सब हमें ही लौटा दिया करता है, इसलिए ही उसका अनवरत अध्ययन आवश्यक होता है, ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है।
किसी युग में मानव ने किन अच्छी बातों को अपनाकर अपनी सफलता का इतिहास लिखा, किन अवगुणों और आम व्यवहारों ने मानव-समाज को असफलता का अभिषाप देकर अवनति एंव परतंत्रता के गढ़े में ढकेला जैसी कई बातें साहित्य में संचित रहा करती हैं। उन्हें पढक़र जीवन को सहज ही सुव्यवस्थित, सुस्थिर बनाया जा सकता है। कहने को मानव जाति की जय-पराजय की कहानयिों, उनके ब्राह्म कारण इतिहास में भी संचित रहा करते हैं। पर वह भीतरी कारणों को उजागर कर पाने में असमर्थ रहा करता है। उनकी सभी तरह की जानकारी दे पाने में सत्साहित्य ही समर्थ हुआ करता है। इसी कारण समझदार लोग सत्साहित्य के अनवरत अध्ययन की प्रेरणा दिया करते हें। केवल सत्साहित्य ही मानव-मन और आत्मा को स्वस्थ रखने वाली खुराक प्रदान कर सकता है, सडक़ छाप खरपतवारी साहित्य कदापि नहीं। सत्साहित्य ही वास्तव में नई-पुरानी भिन्न-भिन्न सभयता-संस्कृतियों के भीतरी गुण-दोषों, सफलताओं और सब तरह की सुखद सफलताओ ंके साथ हमारा सघन परिचय करवाता है। उस सबको जान सुन हम अच्छी बातें ग्रहण करके अपने साथ-साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति के विकास में सहायता कर सकते हैं। सत्साहित्य बताता है कि व्यक्तियों या देशों-राष्ट्रों ने विशेष प्रकार की समस्यांए खड़ी हो जाने पर किस साहस, सूझ-बूझ और ढंग से उनका हल किया। उनकी उन्नति या अवनति के कारण क्या थे? यह सब जानकर हम भी अपने व्यक्तियों, देश और राष्ट्र की प्रगति और विकास के लिए वैसे प्रयोग कर सकते हैं। उनकी राह पर चल सकते हैं।
समय परिवर्तन और प्रगतिशील है। सत्साहित्य भी अपनी ही आंतरिक प्रेरणा से परिवर्तन और प्रगतिशीलता के तत्वों को ग्रहण कर लिया करता है। उसे पढक़र हर सुरूचि-संपन्न पाठक समय के साथ चलकर उन्नति कर पाने की प्रेरणा पा सकता है। सत्साहित्य अपने पाठक के ज्ञान को तो बढ़ाता ही है, उसके भाव और विचार को भी बढ़ावा तथा विस्तार दिया करता है। व्यक्ति को कल्पनाशील बनाता है। जो पहले से कल्पनाशील व्यक्ति है, उसकी कल्पना-शक्ति में बढ़ौत्तरी कर उसका परिष्कार और संस्कार भी किया करता है। भिन्न तत्वों की जानकारी प्रदान कर सत्साहित्य व्यक्ति और समाज को समृद्ध, सहनशील, विचारवान और उन्नतिकायी बनाया करता है। एक वाक्य में एक मनुष्य को पूर्ण मनुष्य, समाज को पूर्ण विकसित समाज और राष्ट्र को उन्नत तथा समृद्ध राष्ट्र बनाने में सत्साहित्य निश्चय ही सब प्रकार की सहायता किया करता है। इस कारण उसका अध्ययन करना, यदि संभव हो सके तो निर्माण तथा विकास में हर प्रकार की सहायता पहुंचाना जरूरी है।
ध्यान रहे, सत्साहित्य मनुष्य के मन-मस्तिष्क और आत्मा को खुराक प्रदान किया करता है। जैसे अच्छी, ताजी और पौष्टिक खुराक ही शरीर को स्वस्थ रखा करती है, वैसे सत्साहित्य को पढऩे से मिलने वाली खुराक ही मनुष्य के मन, मस्तिष्क और आत्मा को उन्नत बना सकती है, स्वस्थ रखकर विकसित रख सकती है। सो जैसे बासी, सड़ा-गला नही खाना-पीना चाहिए उसी प्रकार गंदा, सस्ता और सडक़छाप अश्लील साहित्य भी नहीं पढऩा चाहिए। उससे मन-मस्तिष्क और आत्मा तो भ्रष्ट ही हो जाते हैं, उनका प्रभाव शरीर को भी खोखला और बेकार कर दिया करता है। तब जीवन-जीने का सारा आनंद जाता रहता है। जीवन बोझ और कठिन हो जाता है। उस सबसे बचे रहने के लिए सावधानी के तौर पर हमेशा सत्साहित्य का ही अध्ययन करें। इसी में समझदारी है। जीवन का सच्चे लाभ और आनंद भी है।
मानव वर्तमान में रहते हुए भी अपने स्वर्णिम अतीत का स्वरण सत्साहित्य का अध्ययन करके ही किया करता है। इसी प्रकार अतीत और वर्तमान को दृष्टिगत कर सत्साहित्य के अध्ययन के बल पर मनुष्य सुखद भविष्य के न केवल सपने देख, बल्कि उनके अनुरूप जीवन को सजा-संवार भी सकता है। स्वाभाविक गति से प्रगति एंव विकास कर पाने के लिए अपनी पहचान, अपनी धरती की माटी की सौंधी सुंगधी की पहचान, आत्मज्ञान आदि बहुत जरूरी हुआ करता है। इस सबकी वास्तविक प्राप्ति सत्साहित्य के साथ आंतरिक स्तर पर जुड़े रहने से ही संभव हो पाया करती है। यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि सत्साहित्य अपना समस्त सुकार्य एक सन्मित्र के समान किया करता है, न के गुरु, शासक या बड़े-बुजुर्ग की तरह आदेश देकर किया करता है। इस कारण सत्साहित्य द्वारा प्रदर्शित मार्ग न तो आदमी को कठिन ही लगा करता है और न उबाऊ ही। शास्त्रों और अध्यापकों के समान शिक्षक का कार्य भी वह नहीं करता, फिर भी इस प्रकार की सभी उचित शिक्षांए उससे प्राप्त हो जाया करती है। इसी कारण ही सत्साहित्य के अनवरत अध्ययन की बात की और कही जाती है।
सत्साहित्य संतुलित भोजन के समय मनुष्य का स्वास्थ्य तो संतुलित रखा ही करता है, स्वस्थ मनोरंजन भी प्रदान करता है कि मन-मस्तिष्क के स्वास्थ्य एंव आत्मा की जागरुकता के लिए परम आवश्यक हुआ करता है। सत्साहित्य मानव को हमेशा सन्मार्ग पर सक्रिय रहने की प्रेरणा प्रदान किया करता है। जैसा कि हम पहले भी कह आए हैं, सत्साहित्य सहज उत्रादयित्वों का अहसास कराकर विशुद्ध आत्मिक आनंद की प्रात्पि में भी सहायक हुआ करता है। अत: व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक चालू किस्म के तथाकथित साहित्य से बचे रहकर हमेशा सत्साहित्य का ही अध्ययन मनन करना चाहिए।
साहित्य को साहित्य इसलिए कहा गया है कि उसमें बुनियादी तौर पर मानव-जीवन और समाज के ‘हित’ का भाव स्वत: ही अंतर्हित रहा करता है। वह मनुष्यों की आत्मा को एक करने वाली कोमल-कांत कड़ी का काम भी किया करता है। वह हमारी कोमल-कांत भावनाओं को सहलाया ही करता है, हमारे जीवन को सहज व्यवहारों की सीख भी दिया करता है। जीवन के सामने समय-समय पर आने वाले प्रश्नों के समाधान प्रस्तुत करने में भी सत्साहित्य कभी पीछे नहीं रहा करता। ‘सत्साहित्य का अध्ययन क्यों करना चाहिए। ऊपर बताई गई बातों से इस क्यों का उत्तर मिल नहीं जाना चाहिए क्या?’ निश्चय ही उपर्युक्त सभी बातें मानव-कल्याण एंव कलात्मक जीवन जी सकने के लिए आवश्यक हुआ करती है। सो इन्हें जीवन-व्यवहारों से ग्रहण कर, अपनी सुंदर-सुखद कल्पनाओं से सजा-संवारकर सत्साहित्य वे सब हमें ही लौटा दिया करता है, इसलिए ही उसका अनवरत अध्ययन आवश्यक होता है, ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है।
किसी युग में मानव ने किन अच्छी बातों को अपनाकर अपनी सफलता का इतिहास लिखा, किन अवगुणों और आम व्यवहारों ने मानव-समाज को असफलता का अभिषाप देकर अवनति एंव परतंत्रता के गढ़े में ढकेला जैसी कई बातें साहित्य में संचित रहा करती हैं। उन्हें पढक़र जीवन को सहज ही सुव्यवस्थित, सुस्थिर बनाया जा सकता है। कहने को मानव जाति की जय-पराजय की कहानयिों, उनके ब्राह्म कारण इतिहास में भी संचित रहा करते हैं। पर वह भीतरी कारणों को उजागर कर पाने में असमर्थ रहा करता है। उनकी सभी तरह की जानकारी दे पाने में सत्साहित्य ही समर्थ हुआ करता है। इसी कारण समझदार लोग सत्साहित्य के अनवरत अध्ययन की प्रेरणा दिया करते हें। केवल सत्साहित्य ही मानव-मन और आत्मा को स्वस्थ रखने वाली खुराक प्रदान कर सकता है, सडक़ छाप खरपतवारी साहित्य कदापि नहीं। सत्साहित्य ही वास्तव में नई-पुरानी भिन्न-भिन्न सभयता-संस्कृतियों के भीतरी गुण-दोषों, सफलताओं और सब तरह की सुखद सफलताओ ंके साथ हमारा सघन परिचय करवाता है। उस सबको जान सुन हम अच्छी बातें ग्रहण करके अपने साथ-साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति के विकास में सहायता कर सकते हैं। सत्साहित्य बताता है कि व्यक्तियों या देशों-राष्ट्रों ने विशेष प्रकार की समस्यांए खड़ी हो जाने पर किस साहस, सूझ-बूझ और ढंग से उनका हल किया। उनकी उन्नति या अवनति के कारण क्या थे? यह सब जानकर हम भी अपने व्यक्तियों, देश और राष्ट्र की प्रगति और विकास के लिए वैसे प्रयोग कर सकते हैं। उनकी राह पर चल सकते हैं।
समय परिवर्तन और प्रगतिशील है। सत्साहित्य भी अपनी ही आंतरिक प्रेरणा से परिवर्तन और प्रगतिशीलता के तत्वों को ग्रहण कर लिया करता है। उसे पढक़र हर सुरूचि-संपन्न पाठक समय के साथ चलकर उन्नति कर पाने की प्रेरणा पा सकता है। सत्साहित्य अपने पाठक के ज्ञान को तो बढ़ाता ही है, उसके भाव और विचार को भी बढ़ावा तथा विस्तार दिया करता है। व्यक्ति को कल्पनाशील बनाता है। जो पहले से कल्पनाशील व्यक्ति है, उसकी कल्पना-शक्ति में बढ़ौत्तरी कर उसका परिष्कार और संस्कार भी किया करता है। भिन्न तत्वों की जानकारी प्रदान कर सत्साहित्य व्यक्ति और समाज को समृद्ध, सहनशील, विचारवान और उन्नतिकायी बनाया करता है। एक वाक्य में एक मनुष्य को पूर्ण मनुष्य, समाज को पूर्ण विकसित समाज और राष्ट्र को उन्नत तथा समृद्ध राष्ट्र बनाने में सत्साहित्य निश्चय ही सब प्रकार की सहायता किया करता है। इस कारण उसका अध्ययन करना, यदि संभव हो सके तो निर्माण तथा विकास में हर प्रकार की सहायता पहुंचाना जरूरी है।
ध्यान रहे, सत्साहित्य मनुष्य के मन-मस्तिष्क और आत्मा को खुराक प्रदान किया करता है। जैसे अच्छी, ताजी और पौष्टिक खुराक ही शरीर को स्वस्थ रखा करती है, वैसे सत्साहित्य को पढऩे से मिलने वाली खुराक ही मनुष्य के मन, मस्तिष्क और आत्मा को उन्नत बना सकती है, स्वस्थ रखकर विकसित रख सकती है। सो जैसे बासी, सड़ा-गला नही खाना-पीना चाहिए उसी प्रकार गंदा, सस्ता और सडक़छाप अश्लील साहित्य भी नहीं पढऩा चाहिए। उससे मन-मस्तिष्क और आत्मा तो भ्रष्ट ही हो जाते हैं, उनका प्रभाव शरीर को भी खोखला और बेकार कर दिया करता है। तब जीवन-जीने का सारा आनंद जाता रहता है। जीवन बोझ और कठिन हो जाता है। उस सबसे बचे रहने के लिए सावधानी के तौर पर हमेशा सत्साहित्य का ही अध्ययन करें। इसी में समझदारी है। जीवन का सच्चे लाभ और आनंद भी है।
मानव वर्तमान में रहते हुए भी अपने स्वर्णिम अतीत का स्वरण सत्साहित्य का अध्ययन करके ही किया करता है। इसी प्रकार अतीत और वर्तमान को दृष्टिगत कर सत्साहित्य के अध्ययन के बल पर मनुष्य सुखद भविष्य के न केवल सपने देख, बल्कि उनके अनुरूप जीवन को सजा-संवार भी सकता है। स्वाभाविक गति से प्रगति एंव विकास कर पाने के लिए अपनी पहचान, अपनी धरती की माटी की सौंधी सुंगधी की पहचान, आत्मज्ञान आदि बहुत जरूरी हुआ करता है। इस सबकी वास्तविक प्राप्ति सत्साहित्य के साथ आंतरिक स्तर पर जुड़े रहने से ही संभव हो पाया करती है। यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि सत्साहित्य अपना समस्त सुकार्य एक सन्मित्र के समान किया करता है, न के गुरु, शासक या बड़े-बुजुर्ग की तरह आदेश देकर किया करता है। इस कारण सत्साहित्य द्वारा प्रदर्शित मार्ग न तो आदमी को कठिन ही लगा करता है और न उबाऊ ही। शास्त्रों और अध्यापकों के समान शिक्षक का कार्य भी वह नहीं करता, फिर भी इस प्रकार की सभी उचित शिक्षांए उससे प्राप्त हो जाया करती है। इसी कारण ही सत्साहित्य के अनवरत अध्ययन की बात की और कही जाती है।
सत्साहित्य संतुलित भोजन के समय मनुष्य का स्वास्थ्य तो संतुलित रखा ही करता है, स्वस्थ मनोरंजन भी प्रदान करता है कि मन-मस्तिष्क के स्वास्थ्य एंव आत्मा की जागरुकता के लिए परम आवश्यक हुआ करता है। सत्साहित्य मानव को हमेशा सन्मार्ग पर सक्रिय रहने की प्रेरणा प्रदान किया करता है। जैसा कि हम पहले भी कह आए हैं, सत्साहित्य सहज उत्रादयित्वों का अहसास कराकर विशुद्ध आत्मिक आनंद की प्रात्पि में भी सहायक हुआ करता है। अत: व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक चालू किस्म के तथाकथित साहित्य से बचे रहकर हमेशा सत्साहित्य का ही अध्ययन मनन करना चाहिए।
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