विद्यार्थी और राजनीति
आयु में अध्ययन का एक विशिष्ट भाग विद्यार्थी जीवन कहलाता है। इस अवस्था में जीवन को सफल बनोन के लिए अनेक प्रकार की विद्यांए प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति ही सामान्यतया विद्यार्थी कहलाता है। इस कार्य के लिए प्राय: मानव-आयु का एक भाग अर्थात 25 वर्षो तक की आयु भी निर्धारित कर दी गई है। इस काल को भविष्य की तेयारी का काल भी कहा जाता है। जैसे अच्छी फसल लेने के लिए एक किसान को हर प्रकार से परिश्रम करके खेत को तैयार कर, फिर अच्छे बीज बोने, सिंचाई तथा देखभाल जैसे कई कार्य पूरी तैयारी के साथ करने पड़ते हैं, उसी प्रकार भविष्य में जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी को भी अनेकविध शिक्षणात्मक कार्य करने पड़ते हैं। इस बात का पूरा ध्यान रखना पड़ता है कि व्यर्थ की खरपतावार उगकर खेती और उसमें उगने वाली फसल को बरबाद न कर दें। ठीक किसान के समान विद्यार्थी को भी ध्यान रखना पड़ता है कि व्यर्थ की बातें और झंझट आदि उसकी शिक्षा की राहत पर आकर उसके भविष्य रूपी खेत को चौपट न कर दें। आजकल विलासिता, फैशल, गुंडागर्दी और राजनीति-रूपी खरपतवार शिक्षा क्षेत्र में इस सीमा तक उग आती हे कि कई बार अच्छे-भले लोगों तक का भविष्य भी उजड़-पुजडक़र रहह जाया करता है। यही सब देख-सुन आज यह स्वाभाविक प्रश्न उठाया जाता है कि क्या विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं?
प्रश्न निश्चय ही सामयिक और महत्वपूर्ण है। इसी कारण विद्यार्थी राजनीति में भाग ले अथवा नहीं, इस प्रश्न को लेकर आज कई मत-वाद प्रचलित हैं। एक मत वालों का कहना है कि विद्यार्थी को सभी प्रकार की राजनीति में अवश्य भाग लेना चाहिए। इस मत वाले मानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन क्योंकि भविष्य की तैयारी का जीवन है, अत: राजनीति में भाग लेकर आज का विद्यार्थी कल का राजनेता बनने और देश की बागडोर संभालने की पूरी तैयारी कर सकता है। अत: राजनीति को भी एक प्रकार की शिक्षा और उसका अंग ही माना जाना चाहिए। ऐसे लोग लालबहादुर शास्त्री, सुभाषचंद्र बोस जैसे कुछ सफल राजनेताओं का उदाहरण भी देते हैं। इनका कहना है कि ये लोग विद्यार्थी काल में राजनीति में कूद पडऩे के कारण आगे चलकर सफल राजनेता बन सके।
इसके विपरीत दूसरे मत के लोग यह मानते हैं कि विद्यार्थी को राजनीति में एकदम भाग नहीं लेना चाहिए। वह इसलिए कि आज की राजनीति अपने पवित्र लक्ष्यों से भटक चुकी है, अत: उसका अंग बनने पर विद्यार्थी के भी भटक जाने का खतरा अधिक बना रहता है। अक्सर देखा गया है कि राजनीतिक आंदोलन कई बार हिंसक हो उठते हैं। भाग लेने वाले का कोई अंग-भंग हो सकता है उसे जेल-यात्रा भी करनी पड़ सकती है। ये बातें उसके मन को अशांत बनाए रखकर शारीरिक और मानसिक स्पर पर अपंग भी बना सकती है। समय, शक्ति और धन का दुरुपयोग हो सकता है। जो उसे कहीं का भी नहीं रहने देसकता। जहां तक लालबहादुर शास्त्री जैसे कुछ लोगों के उदाहरण का प्रश्न है, उसके बारे में इन लोगों का कहना है कि तब परिस्थितियां और थीं। तब राजनीतिक वातावरा आज की तरह दूषित और लक्ष्यों से भ्रष्ट नहीं था। स्वतंत्रता-प्राप्ति का पवित्र और स्पष्ट लक्ष्य सबके सामने था। पर आज तो प्राय: सभी राजनीतिक दल केवल सत्ता के भूखे है, एक-दूसरे को नीचा दिखाकर स्वंय आगे आना चाहते हैं। इसके लिए ये विद्यार्थी और युवा-शक्ति को गुमराह कर भडक़ा देते हैं, उन्हें कहीं का भी नहीं रहने देते। अच्छा यही है कि राजनीति जैसे भ्रष्ट खेलों में विद्यार्थी न पड़े, केवल अपने अध्ययन और शिक्षा के पवित्र लक्ष्य पर ही डटे रहे। भविष्य की बातें भविष्य के लिए छोड़ दें ओर उन तक पहुंच पाने की तैयार करता रहे।
उपर्युक्त दोनों मतों की तुलना में तीसरा मत और दृष्टिकोण समन्यवादी है। इस मत के मानने वालों का कहना है कि विद्यार्थी को राजनीति के मामले में केवल सीखने और शिक्षा लेने वाला दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे शिखा का अंग मानकर देश-विदेश की सभी प्रकार की विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन तो अवश्य करते रहना चाहि, पर सक्रिय राजनीति में उसकका भाग न लेना ही उचित है। इस तरह तटस्थ रहकर, युग-परिवेश का गहरा और राजनीतिक संदर्भों में अध्ययन कर विद्यार्थी भविष्य में अधिक अच्छा और सफल राजनेता एंव नागरिक बन सकता है। मतलब यह है कि अपने शिक्षा-काल में विद्यार्थी राजनीति के मामले में भी मात्र विद्यार्थी ही रहे, उसका सक्रिय अंग न बने। यही उचित एंव लाभदायक है।
उपर्युक्त तीनों मतों में से हमारे विचार में आज की विषम परिस्थितियों में विद्यार्थी के संदर्भ में तीसरा समन्वयवादी मत या विचार ही अधिक उपयुक्त है। विद्यार्थी वास्तव में शिक्षार्थी है ओर शिक्षा का अर्थ केवल किताबी शिक्षा नहीं, केवल परीक्षांए पास करना ही नहीं है, बल्कि जहां से जो कुछ भी सीखने को मिलता है, वह सीखकर भविष्य की तैयारी करनाा है। यह तैयारी राजनीति में सक्रिय सहयोग जैसे झंझटों से संभव नहीं हो सकती, जिज्ञासु तटस्थता से ही संभव और पूर्ण हो सकती है। अत-राजनीति हो या कोई अन्य मामला, विद्यार्थी का सभी मामलों में कुछ सीखकर भविष्य की तैयारी ही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए। सभी जगह उसका विद्यार्थी बना रहना ही शुभ एंव हितकर हो सकता है।
आयु में अध्ययन का एक विशिष्ट भाग विद्यार्थी जीवन कहलाता है। इस अवस्था में जीवन को सफल बनोन के लिए अनेक प्रकार की विद्यांए प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति ही सामान्यतया विद्यार्थी कहलाता है। इस कार्य के लिए प्राय: मानव-आयु का एक भाग अर्थात 25 वर्षो तक की आयु भी निर्धारित कर दी गई है। इस काल को भविष्य की तेयारी का काल भी कहा जाता है। जैसे अच्छी फसल लेने के लिए एक किसान को हर प्रकार से परिश्रम करके खेत को तैयार कर, फिर अच्छे बीज बोने, सिंचाई तथा देखभाल जैसे कई कार्य पूरी तैयारी के साथ करने पड़ते हैं, उसी प्रकार भविष्य में जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी को भी अनेकविध शिक्षणात्मक कार्य करने पड़ते हैं। इस बात का पूरा ध्यान रखना पड़ता है कि व्यर्थ की खरपतावार उगकर खेती और उसमें उगने वाली फसल को बरबाद न कर दें। ठीक किसान के समान विद्यार्थी को भी ध्यान रखना पड़ता है कि व्यर्थ की बातें और झंझट आदि उसकी शिक्षा की राहत पर आकर उसके भविष्य रूपी खेत को चौपट न कर दें। आजकल विलासिता, फैशल, गुंडागर्दी और राजनीति-रूपी खरपतवार शिक्षा क्षेत्र में इस सीमा तक उग आती हे कि कई बार अच्छे-भले लोगों तक का भविष्य भी उजड़-पुजडक़र रहह जाया करता है। यही सब देख-सुन आज यह स्वाभाविक प्रश्न उठाया जाता है कि क्या विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं?
प्रश्न निश्चय ही सामयिक और महत्वपूर्ण है। इसी कारण विद्यार्थी राजनीति में भाग ले अथवा नहीं, इस प्रश्न को लेकर आज कई मत-वाद प्रचलित हैं। एक मत वालों का कहना है कि विद्यार्थी को सभी प्रकार की राजनीति में अवश्य भाग लेना चाहिए। इस मत वाले मानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन क्योंकि भविष्य की तैयारी का जीवन है, अत: राजनीति में भाग लेकर आज का विद्यार्थी कल का राजनेता बनने और देश की बागडोर संभालने की पूरी तैयारी कर सकता है। अत: राजनीति को भी एक प्रकार की शिक्षा और उसका अंग ही माना जाना चाहिए। ऐसे लोग लालबहादुर शास्त्री, सुभाषचंद्र बोस जैसे कुछ सफल राजनेताओं का उदाहरण भी देते हैं। इनका कहना है कि ये लोग विद्यार्थी काल में राजनीति में कूद पडऩे के कारण आगे चलकर सफल राजनेता बन सके।
इसके विपरीत दूसरे मत के लोग यह मानते हैं कि विद्यार्थी को राजनीति में एकदम भाग नहीं लेना चाहिए। वह इसलिए कि आज की राजनीति अपने पवित्र लक्ष्यों से भटक चुकी है, अत: उसका अंग बनने पर विद्यार्थी के भी भटक जाने का खतरा अधिक बना रहता है। अक्सर देखा गया है कि राजनीतिक आंदोलन कई बार हिंसक हो उठते हैं। भाग लेने वाले का कोई अंग-भंग हो सकता है उसे जेल-यात्रा भी करनी पड़ सकती है। ये बातें उसके मन को अशांत बनाए रखकर शारीरिक और मानसिक स्पर पर अपंग भी बना सकती है। समय, शक्ति और धन का दुरुपयोग हो सकता है। जो उसे कहीं का भी नहीं रहने देसकता। जहां तक लालबहादुर शास्त्री जैसे कुछ लोगों के उदाहरण का प्रश्न है, उसके बारे में इन लोगों का कहना है कि तब परिस्थितियां और थीं। तब राजनीतिक वातावरा आज की तरह दूषित और लक्ष्यों से भ्रष्ट नहीं था। स्वतंत्रता-प्राप्ति का पवित्र और स्पष्ट लक्ष्य सबके सामने था। पर आज तो प्राय: सभी राजनीतिक दल केवल सत्ता के भूखे है, एक-दूसरे को नीचा दिखाकर स्वंय आगे आना चाहते हैं। इसके लिए ये विद्यार्थी और युवा-शक्ति को गुमराह कर भडक़ा देते हैं, उन्हें कहीं का भी नहीं रहने देते। अच्छा यही है कि राजनीति जैसे भ्रष्ट खेलों में विद्यार्थी न पड़े, केवल अपने अध्ययन और शिक्षा के पवित्र लक्ष्य पर ही डटे रहे। भविष्य की बातें भविष्य के लिए छोड़ दें ओर उन तक पहुंच पाने की तैयार करता रहे।
उपर्युक्त दोनों मतों की तुलना में तीसरा मत और दृष्टिकोण समन्यवादी है। इस मत के मानने वालों का कहना है कि विद्यार्थी को राजनीति के मामले में केवल सीखने और शिक्षा लेने वाला दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे शिखा का अंग मानकर देश-विदेश की सभी प्रकार की विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन तो अवश्य करते रहना चाहि, पर सक्रिय राजनीति में उसकका भाग न लेना ही उचित है। इस तरह तटस्थ रहकर, युग-परिवेश का गहरा और राजनीतिक संदर्भों में अध्ययन कर विद्यार्थी भविष्य में अधिक अच्छा और सफल राजनेता एंव नागरिक बन सकता है। मतलब यह है कि अपने शिक्षा-काल में विद्यार्थी राजनीति के मामले में भी मात्र विद्यार्थी ही रहे, उसका सक्रिय अंग न बने। यही उचित एंव लाभदायक है।
उपर्युक्त तीनों मतों में से हमारे विचार में आज की विषम परिस्थितियों में विद्यार्थी के संदर्भ में तीसरा समन्वयवादी मत या विचार ही अधिक उपयुक्त है। विद्यार्थी वास्तव में शिक्षार्थी है ओर शिक्षा का अर्थ केवल किताबी शिक्षा नहीं, केवल परीक्षांए पास करना ही नहीं है, बल्कि जहां से जो कुछ भी सीखने को मिलता है, वह सीखकर भविष्य की तैयारी करनाा है। यह तैयारी राजनीति में सक्रिय सहयोग जैसे झंझटों से संभव नहीं हो सकती, जिज्ञासु तटस्थता से ही संभव और पूर्ण हो सकती है। अत-राजनीति हो या कोई अन्य मामला, विद्यार्थी का सभी मामलों में कुछ सीखकर भविष्य की तैयारी ही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए। सभी जगह उसका विद्यार्थी बना रहना ही शुभ एंव हितकर हो सकता है।
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