आज बेरोजगारी बढ़ती हुई महंगाई की तरह एक भयानक स्वस्या है। जीवन-स्तर लगभग तय हो चुका है। लोकतं ने आम आदमी को स्वप्नों से संबंध कियाहै, उनमें परिकल्पनाओं का स्वर्ग महाकाया और जीने की महती अकांक्षांए पैदा की है। उसके लिए रोजगार चाहिए। नई पीढ़ी तो स्वप्नों की पीढ़ी है जो बहुत कुछ करना चाहती है। उसमें जोश है, कुछ कर पाने की तमन्ना है ओर शक्ति है। जरा कल्पना कीजिए जीवन के सुंदर स्वप्न बुनने वाला जब बेकारी की दहलीज पर खड़ा सूखे आसमान पर चटकती धरती की ओर देखेगा तब उसके अंतर्मन पर क्या बीत रही होगी। उसके सृजित आत्मविश्वास, उम्मीद और स्वप्नों पर क्या बीत रही होगी। क्या उसके सामने स्याहा अंधेरा समुद्र की तरह उछाले नहीं ले रहा होगा।
महत्वाकांक्षा और स्वप्नों को संजोए नवयुवक को अचानक जब तपती हुई रेतीली धरती पर अकेला छोड़ दिया जाता है तब वह आक्रोश, आशंका, अंनस्तित्व, वर्जना, कुंठी आदि के दलदल में फंसने लगता है।
मैं भी बराबर इन्हीं परिस्थितियों से गुजरने लगा था, मेरे सामने अंधेरा था बेकारी के दैतय की छोया मुझे या तो निगल जाने का प्रयास कर रही थी ।तभी मेरा परिचय बैंक मैनेजर दुआ से हो गया वे मेरे मित्र बन गए। उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा कि मैं कोई काम शुरू कर दूं। मैंने विक्रम जनरल स्टोर के नाम से दुकान खोल दी। समय बीतता गया। छह-सात माह में दो हजार मासिक आदनी होनी लगेगी अब मेरे मन में दुकान के प्रति झुकाव पैदा हुआ। मैं खरीददारी का रुख समझकर उनके अनुसार कार्य करने लगा। फलत: दुकान चल निकली।
मेरी समझ में बेकारी की समस्या का हल आ गया। हम क्यों नौकरी के पीछे दौड़े? क्यों नहीं स्व-रोजगार की ओर कदम बढ़ांए। आज नौकरी के प्रति लोगों में पहले जैसा झुकाव नहीं रह गाय। शिक्षित व्यक्ति की यह समझ में आने लगा कि वह प्राप्त शिक्षा का अपने व्यवसाय या कार्य में प्रयोग कर खासा लाभ उठा सकता है। जो निस्संदेह नौकरी की अपेक्षा कालांतर में अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
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