आरंभव से ही यह मान्यता चली आ रही है कि भारत गांव-संस्कृति प्रदशन देश है। फिर भी गांव का नाम सुनते ही आपस में, दो सर्वथा विरोधी चित्र हमारे सामने उभरकर आ जाते हैं। एक चित्र तो बड़ा ही सुंदर और सुहावना प्रतीत होता है, जबकि दूसरा एकदम कुरूप और भद्दा। पहले चित्र के अनुसार गांव कच्चे-पक्के पर साफ-सुथरे घरों का एक ऐसा समूह बनकर उभरता है कि जिनके आस-पास असीम हरियाली, प्रकृति के सुंदर-सुंदर दृश्य, पनघट, चौपालें, उनमें बैठकर हुक्का गुडगुड़ाते ओर बातें करते हुए साफ-सुथरे खुशहाल लोग और खुशहाल पर्यावरण आदि दिखने लगते हैं। उनके पास सुंदर-स्वस्थ पशु हैं, जिनके गलों में पड़ी घंटियां टुनटुनाकर संगीत का सा आनंद दे जाती हैं। खेतों में हल-बक्खर चल रहे या अनाजों के ढेर लगे पड़े हैं। कच्चे रास्तों पर बैल या ऊंट-गाडिय़ां दौड़ रही हैं। स्त्री-पुरुष सभी स्वस्थ-सुंदर और मेलजोल से रहते हैं। अनपढ़-अशिक्षित होते हुए भी वे समझदार, सीधे और भोले हैं। वहां दूध-घी की नदियां बहती हैं। कभी भी गरीबी और भुखमरी का नाम तक नहीं-इत्यादि। निश्चय ही भारत में ऐसे गांव हुआ करते थे, पर यह बहुत पुरानी, कई सौ वर्षों पहले के भारतीय गांवों की कहानी हैं, जो आज महज कल्पना ही प्रतीत होती है। हां, फिल्मों के दिखाए जाने वाले कल्पित ग्रामों की बात एकदम अलग-व्यवस्था है।
गांव का दूसरा कुरूप और भद्दा चित्र उसके बाद का है। वहां ऊबड़-खाबड़ धुंध-धुंए से भरी मटमैल झौंपडिय़ां हैं। हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य के नाम पर गांवों से कुछ हटकर खेत तो हैं, पर गांव के ठीक बाहर गंदगी और कूड़े के ढेर लग रहे हैं। रास्तें गंदे और कीचड़ के कारण दलदले हैं। पनघट के नाम पर बने कुओं पर बूंद-बूंद पानी के लिए झपटती-झगड़ती मैली-कुचैली नारियों े के झुंड चीख-चिल्ला रहे हैं। चौपालों का नाम तक नहीं रह गया। मरियल से पशु हैं जो मालिकों के समान ही किसी प्रकार जीवन जिए जा रहे हैं। खेतों में धूल उड़ रही है या पपडिय़ां जम रही हैं। लोग झगड़ालू, मूख, अनपढ़-अशिक्षित, रोगी और असमर्थ हैं। फसलें उगाकर भी वे भूखों मरते और गरीबी का जीवन व्यतीत करते हैं। कोई उनका पुछंतर नहीं। सामान्य तौर पर इसे स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक के भारतीय गांवों का स्वरूप कह सकते हैं। पर जो गांव, शहरों, पक्की, सडक़ों या राजपथों से काफी दूर, घने जंगलों या पहाड़ी प्रदेशों में बने हैं, उनकी दशा आज भी कुछ-कुछ इसी प्रकार की दिखाई देती हैं। सामंतो की परंपरागत सभ्यता के शोषण का शिकार वहां का आदमी आज भी गंदे माहौल में रहकर आदमी होने का भ्रम मात्र ही पाले या बनाए हुए हैं।
समय के साथ-साथ इन दोनों परस्पर विरोधी चित्रों के विपरीत आज के भारतीय गांव का चित्र काफी कुछ बदल रहा है। खासकर जो गांव नगरों के समीप और राजपथों के आसपास बने हैं, वहां खेती-बाड़ी के आधुनिक उपकरण पहुंचकर $कृषि-कार्यों का कायाकल्प कर आम किसानों, जमींदारों को तो समृद्ध बना रही रहे हैं, वहां के आम आदमी की दशा भी बदल रहे हैं। इतना ही नहीं, आधुनिक सभ्यता के सभी प्रकार के उपकरण भी आज के एंसे गांवों में पहुंचकर बिजली की सहायता से नगरीय जीवन का ही आनंद प्रदान कर रहे हैं। आज गांव में सभी प्रकार की शिक्षा का भी प्रचार हो रहा है। छोटे-मोटे उद्योग धंधे भी स्थापित हो रहे हैं। परिणामस्वरूप आज का ग्रामीण मैला-कुचैला और अपने आप में ही सिकुडक़र बहस कर सकता और करता है, उसमें भाग भी लेता है। अपने कर्तव्य के साथ-साथ अपनी और अपने वोट की शक्ति तथा महत्व को वह जानता है। वह हल या ट्रैक्टर भी पैंट पहनकर चलाता है। सभी प्रकार के आधुनिक फैशन करता है। ग्रामीण नारी भी पुरुष के समान काफी जागरुक हो चुकी है। अब उसके हाथ गोबर से सने नहीं रहते बल्कि गोबर-गैस प्लांट पर शान से खाना बनाते हैं। वह पढ़ती-लिखती और अनेक प्रकार के धंधे भी करने लगी हैं। मतलब यह है कि आज का गांव एकदम बदल गया है और बदल रहा है। परंतु यह बदलाव नगरों, राजपथों के आस-पास के गांवों में ही आ गया है, दूर-दाज के गांवों में प्राय: कहीं नहीं।
ऊपर जिस प्रकार के बदलाव का उल्लेख किया गया है, उसके कारण सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि हमारी परंपरागत सभ्यता-संस्कृति जो गांवों में जीवित चली आ रही थी, प्राय: विलुप्त होती जा रही है। खेतों की फसली हरियाली उजड़ चुकी है। उसे गांव वालों ने बेच-बाचकर या तो धन कमा लिया या कमा रहे हैं। पनघटों की शोभाा उजड़ गई है। दूध-घी अब असली तो बिकने लगा है, जबकि नकली या वनस्पती का नगरों की तरह ही ग्रामों में अभाव भरा प्रयोग जारी हो गया है। पंचायतें हैं तो, पर न्याय नहीं केवल राजनीति करने के लिए। लोगों में पहले जैसा अपनापन, प्रेम और भाईचारा भी कतई नहीं रह गया। इतनी आधुनिकता आ जाने पर भी छोटी-बड़ी मानवीयता का भेदभाव शायद आज पहले से भी कसकर सजह मानवीयता का गला घोंट रहा है। घृणा, हिंसा और अलगाव के भाव पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ गए हैं।
इस प्रकार आज के गांव भौतिक परिवर्तन, प्रगति और विकास के पथ पर अग्रसर तो विश्य है। पर जिसे हम भारतीय और गांव संस्कृति कहा करते थे, जिसे ग्रामत्व या किसी भी प्रकार सुखद और उत्साहवर्धक स्थिति नहीं कहा जा सकता। काश, आधुनिकता के साथ-साथ हम उस अच्छे परंपरागत गांव की रक्षा कर पाते। तब आज भी गर्व के साथ कह सकते कि भारत कृषि-प्रधान, ग्राम संस्कृति वाला समृद्ध या उन्नत देश है।
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