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Friday, June 28, 2019

साहित्य का उद्देश्य sahitya ka uddeshya 760 words

June 28, 2019
साहित्य का उद्देश्य sahitya ka uddeshya 760 words

‘साहित्य’ शब्द में मानव हित साधन का भाव स्वत: ही अन्तर्हित रहा करता है और यह सोद्दश्य होता है। सृष्टि में कोई भी प्राणी, पर्दााि या अन्य कुछ निरुद्देश्य नहीं है। मानव इस सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। इस मानव ने अपने सतत प्रयत्न और साधना से आज तक जो कुछ भी प्राप्त किया है, उस सबमें कला और सहित्य और श्रेष्ठतम उपलब्धि माना गया है। यही कारण है कि साहित्य का मूल उत्स या स्त्रोत जीवन और मानव-समाज को ही स्वीकार किया जाता है। साहित्य का प्रभाव अचूक हुआ करता है।साहितत्य का मूल उद्देश्य कुरीतियों, सभी प्रकार की बुराइयों से हटाकर स्वस्थ, सुंदर और आनंदमय जीवन की ओर अग्रसर करना है। जीवन और समाज से संबंधित शेष सभी बातें इसी चेतना के अंतर्गत आ जाती है।

व्युत्पत्ति या बनावट की दृष्ट से ‘साहित्य’ शब्द पर विचार करने पर हम पाते हैं कि इसमें ‘सहित’ और ‘हित’ का भाव छिपा है। अर्थात जो रचना मानवता का हित-साधन करती है वह साहित्य है। तभी तो संस्कृत के आचार्यों ‘सहितस्य भार्व साहित्यम’ कहकर इसकी परिभाषा की है। आधुनिक आचार्यों ने भी साहित्य की परिभाषा करते समय इन्हं बातों का ध्यान रखा है। डॉ. श्यामसुंदर दास मानते हैं कि ‘साहित्य वह है, जो हृदय में आलौकिक आनंद या चमत्कार की सृष्टि करे।’
कुछ पाश्चात्य विद्वान साहित्य को समाज का दर्पण और कछ दिमाग मानते हैं। कुछ लोग साहित्य को ‘जीवन की व्याख्या’ भी स्वीकार करते हैं। इन्हीं से मिलता-जुलता मत आचार्य महावीरप्रसाद द्विेवेदी का भी है ‘विचारों के संचित कोश का नाम साहित्य है।’ इस प्रकार स्पष्ट है कि साहित्य में मानव जीवन के सदविचार और भाव संचित रहा करते हैं- ऐसे भाव और विचार कि जिनका उद्देश्य जीवन-समाज में आ गई कुरुपताओं, दुष्प्रभावों और असंगतियों को मिटाकर संगत एंवव कल्याणकारी बनाना है।

इस प्रकार कहा जा सकता हे कि साहित्य का उद्देश्य व्यापक संदर्भों में मानव का मनोरंजन, स्वस्थ रक्षण और कल्याण करना ही है। यश प्राप्ति का उद्देश्य साहित्यकार तक ही सीमित हुआ करता है। पर यह बात भी ध्यान रखने वाली है कि साहित्य ये सारे कार्य नीति-उपदेश देकर नहीं करता, बल्कि मित्र और प्रिया के समान प्रिय लगने वाले हित वचन कहकर ही किया करता है। इसी कारण उसके कथन में एक प्रकार की कलात्मक विचक्षणता रहती है। यह कलात्मक विक्षणता ही वास्तव में सहित्य है। इसी को साहित्य एंव साहित्यकार की कलात्मक उपलब्धि कहा जाता है।

ऊपर यह कहा जा चुका है कि प्राय: पाश्चात्य विद्वान साहित्य को समाज का दर्पण, मस्तिष्क और जीवन की आलोचना मानते हैं। वस्तुत: उनकी ये मान्यतांए ही साहित्य के उद्देश्य की ओर संकेत करने वाली है। दर्पण का काम करना भी वस्तुत: जीवन की आलोचना या व्याख्या करना ही है और साहित्य जो तथा जिस प्रकार की व्याख्या करता है, उसमें रंजन एंव शुभ या कल्याण दोनों भार्वों का सुखद समन्वय रहा करता है। तभी ताक साहित्य के अध्ययन से अनेक बार जीवन में महान हलचल मच जाया करती है, बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो जाया करती है। फ्रांस की क्रांति के मूल में तो साहित्य था ही, रूस की बोलोशेविक क्रांति भी इसका अपवाद नहीं कही जा सकती।

साहित्य और कला के उद्देश्य क्या हैं? इस प्रश्न को लेकर काफी समय से पश्चिम और भारत में भी, ‘कलावाद’ के सिद्धांत के मानने वाले तो यह कहते या मानते रहे हैं कि कला या साहित्य मात्र एक प्रकार की अभिव्यक्ति है, उससे अधिक कुछ नहीं। अर्थात ‘कला कला के लिए है, जीवन के लिए नहीं।’ क्रोंचे का अभिव्यंजनावाद ‘कला कला के लिए मत का ही समर्थक रहा है।’ इसके विपरीत दूसरा मत है कि ‘कला कला के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए’ है। इसी मत वालों ने कला को जीवन की व्याख्या कहकर उसके उपयोगितावादी पक्ष का समर्थन किया है। अन्यान्य उपर्युक्त बातें भी साहित्य की उपलब्धि एंव गंतव्य ही हैं। विशेषता यह है कि साहित्य, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, विचक्षणता, यश आदि सभी की प्राप्ति मनोरंजक ढंग से ही करवाता है- उपदेश, आदेश देकर या शास्त्र की तरह नीति-वाक्य कहकर नहीं। इस दृष्टि से माक्र्सवादी या फ्रॉयडवादी जो साहित्य का उद्देश्य दीन-दुखियों का लेखा-जोखा, दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति आदि बताते हैं, उस सबका समाहार भी स्वत: ही उपर्युक्त धारणा और परिभाषा में हो जाता है।

इस प्रकार कुल मिलाकर अंत:बाह्य सभी दृष्टियों से सहज मनोरंजक ढंग से मानवमात्र का हितसाधन, शुभ की रक्षा एंव विस्तार और अंत में लौकिक-पारलौकिक मुक्ति ही साहित्य का चरम उद्देश्य कहा जा सकता है। जीवन के व्यवहारों का जो सत्य है, उसी सत्य को अपने रोचक ढंग से अभिव्यंजित करके ही साहित्य अपने उद्देश्य की पूर्ति अर्थात जीवन के ‘शिव’ की रक्षा करते हुए ‘सुंदर’ का अभिधान किया करता है, ऐसे सभी किसी-न-किसी रूप में स्वीकार करते हैं।

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