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Friday, June 28, 2019

साहित्यकार का दायित्व sahityakaar ka dayitva 800 words hindi essay

June 28, 2019
साहित्यकार का दायित्व sahityakaar ka dayitva 800 words hindi essay

साहित्य का सर्जक साहित्यकार भी सबसे पहले एक मनुष्य अर्थात सामाजिक प्राणी ही हुआ करता है। उस समाज का प्राणी, कि जिसका सहित्य के साथ अन्योन्याश्रिता का संबंध माना गया है। दोनों एक-दूसरे से भाव-विचार-सामग्री और प्रेरणा प्राप्त करके अपने प्रत्यक्ष स्वरूप का निर्माण तो किया करते ही हैं, अपने-आपको सजाया-संवारा भी करते हैं। निर्माण, सृजन और सजाने-संवारने की इस सारी क्रिया-प्रक्रिया का माध्यम हुआ करता है-साहित्यकार। अत: साहित्यकार को दोहरे दायित्वों के निर्वाह के दबावों में जीना एंव सृजन प्रक्रिया में प्रवृत होना पड़ता है। समाज और साहित्य दोनों के प्रति साहित्यकार को समान रूप से अपना दायित्व निर्वाह करना होता है।

साहित्यकार सामान्य नहीं, बल्कि सर्वसामान्य से हटकर एक संवेदनशील सामाजिक प्राणी होता है। हमारे व्यवहार जगह, जीवन और समाज में जो कुछ भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष घटित होता है, यों उसका न्यूनाधिक अनुभव प्रत्येक मानव-प्राणी अवश्य किया करता है। उसके प्रति सामान्य प्रतिक्रिया भी हर मनुष्य प्राय: प्रकट किया करता है। पर उसकी गहन अनुभूति एंव सजग-सक्रिय प्रतिक्रिया किसी युग के साहित्यकार की सजग लेखनी के माध्यम से ही हुआ करती है। इसी कारण वह जीवन-समाज का अगुआ तो बन ही जाता है, उसका उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है। इतिहास गवाह है कि प्रत्येक युग के साहित्यकार ने अपनी सजगता से इस उत्तरदायित्व का निर्वाह भली प्रकार से किया है। वीणा के तार पर उंगली का स्वर्श मात्र ही झंकार पैदा कर दिया करता है और साहित्यकार का हृदय, मन-मस्तिष्क वीणा के सूक्ष्म कोमल तारों से कम संवेदनशील नहीं होते, कि जो समय और घटनाओं की चोटें सहकर भी झंकृत न हों। वह झंकार ही उसकी कला या साहित्य के रूप में अवतरित होकर जातियों, संस्कृतियों और राष्ट्रों की अमर धरोहर बन जाया करती है।

साहित्यकार की मानसिकता युग-सापेक्ष तो होती ही है, परंपराओं की उदात्त अनुभूतियों से रंजित भी रहती है। इसी कारण उसका दायित्व अपने समकालीन जीवन का चित्रण करना तो हुआ ही करता है, युग-जीवन को नेतृत्व देकर उसका पथ-प्रदर्शन करना भी तो होता है। वह अपने उज्जवल अतीत से प्रेरणा लेकर, वर्तमान को ध्वनित करते हुए भविष्य के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर दिया करता है। इसी कारण साहित्यकार को केवल स्वप्नद्रष्टा ही नहीं, बल्कि भविष्यद्रष्टा भी कहा जाता है। जब कभी भी किसी देश की राष्ट्रीयता स्वतंत्रता और संस्कृति संकट में पड़ी, युग के साहित्यकारों ने अपनी सबल लेखनी उठाकर राष्ट्रों, जातियों और संस्कृतियों में नव प्राणों का संचार किया, इसके उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं।



युग-युगों में रचे गए इतिहास साक्षी है कि सच्चे साहित्यकार ने अपने इस दायित्व का निर्वाह हर युग में सब प्रकार के लोभ-लालच से दूर रहकर किया है। मध्यकाल का ही उदाहरण ले लीजिए। वह घोर अराजकता और संक्रमण का काल था।  धर्म के नाम पर ब्रह्चारों, आडंबरों और पाखंडों का बोलबाला हो रहा था। सामाजिकता के नाम पर कुरीतियों-कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया जा रहा था। तब कबीर, नानक और तुलसीदास आदि कवियों ने घोर निराशा और विघटन के विरुद्ध अपनी ओजस्वी वाणी मुखरित करके न केवल भारतीय सभ्यता-संस्कृति, बल्कि समूची मानवतो को विघटनकारी दुष्परिणामों से बचा लिया। भक्तिकाल के परवर्ती (रीतिकाल के) कवियों ने भी यही सब किया। परिणामस्वरूप धर्म, समाज और राजनीति आदि प्रत्येक स्तर पर विघटन एंव संघर्ष का दौर चलता रहा। हर मानवीय मूल्य का विघटन होता गया। यहां तक कि देश पराधीन भी हो गया।

आधुनिक काल (संवत 1990) के आरंभ होते ही देश के सजग साहित्यकार एक बार फिर से जीवन, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का तीव्र अहसास करने लगे। न केवल हिंदी भाषा के भरतेंदु, हरिश्चंद्र जैसे सजग कवियों बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों ने भी राष्ट्र की खोई और सोई चेतना को जगाकर स्वतंत्रता-स्वाधीनता के लक्ष्य को पाने का अहसास पूरी शिद्दत के साथ किया। अपने साहित्य में इसी प्रकार की चेतनाओं को ही रूपाकार प्रदान कर जन-जन तक पहुंचाया। उसी का परिणाम है कि आज हम एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक होने का गौरव पा सके हैं। जब देश स्वतंत्रता-संग्राम में जूझ रहा था, तब साहित्यकार भी सभी प्रकार के त्याग का परिचय देकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के लक्ष्यों तक पहुंच पाने में जन-जागरण का महान दायित्म निभा रहे थे। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युग का वास्तविक एंव जागरुक साहित्यकार जन-जीवन और जन-मार्ग को प्रशस्त करने के लिए आगे-आगे रहा करता है। आज जबकि राष्ट्रीय एंव मानवीय मूल्यों का संकट एक बार फिर से उपस्थित है, साहित्यकार उससे बेखकर रह निष्क्रिय नहीं बैठा हुआ है। बल्कि मानवता की अस्मिता को बचाने के लिए अपनी लेखनी और वाणी के अस्त्र से निरंतर जूझ रहा है।

एक जागरूक और सक्रिय साहित्यकार हमेशा समाज की नाड़ी को पहचानकर उसकी गति-दिशा के उपयुक्त ही उपचार में प्रवृत्त हुआ करता है। आज हमारे देश में अनेक प्रकार की आतंरिक-बाहरी विघटनकारी शक्तियां सक्रिय है। राष्ट्र की  सार्वभौम सत्ता और भावात्मक एकता को कई प्रकार की विरोधी चुनौतियों का समाना करना पड़ रहा है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि साहित्यकारों ने हमेशा इस प्रकार की चुनौतियों का उचित उत्तर दिया है, अब भी आगे कदम बढ़ाकर देंगे। अन्यथा उनके अपने अस्तित्व के सामने भी एक मोटा प्रश्नचिन्ह लग जाने का खतरा टाला नहीं जा सकेगा। आने वाला युग उन्हें तथा उनके साहित्य को कूड़ेदान में फेंक देगा। 

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