हिमालय भारत का गौरत है। भारत प्रकृति नदि की क्रीड़ास्थली है और पर्वतराज देवात्मा हिमालय प्रकृति की उसी उज्जवलता का सारा रूप है। हिमालय भारत का गौरव और पौरुष का पुंजीभूत रूप है, देवभूमि है रतें की खोज है। इतिहास का विधाता है, भारतीय संस्कृति का मेरूदंड है तथा भारत की पुण्य भावनाओं तथा श्रद्धा का प्रतीक है।
हिमालय पर्वत भारत भू-भाग के मस्तक पर मुकुट की भांति सुशोभित है। कवियों ने इसे एक मौन तपस्वी और उच्चता का प्रतीक उन्नत शिखर कहकर संबोधित किया है। पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का आवगाहन करते हुए पृथ्वी के मानंड के समान पर्वतरात देवतात्मा हिमालय उत्तर दिशा में स्थित है।
हिमालय की लंबाई पांच हजार मील और चौड़ाई लगभग पांच सौ मील है। उत्तर में कश्मीर से लेकर पश्चिम में असत तक अद्र्धचंद रेखा के समान इसकी पर्वतमालाएं फैली हैं।
हिमालय का सबसे ऊंचा शिखर गौरीशंकर है जिसे एवरेस्ट भी कहा जाता है। भारत का सीमांत प्रहरी हिमालय मध्य एशिया और तिब्बत की ओर से आने वाली बर्फीली हवा की सर्वनाशी झंझाओं से हमारी रक्षा करता है और साथ ही दक्षिण-पश्चिम सागर से उठने वाले मानसून को रोक कर भारत-भूमि को वर्षा प्रदान करता है। इससे निकलने वाली अनेक पुण्य सलिला नदियां भारत-भूमि को शस्य-श्यामला बनाए रखती हैं।
हिमालय न होने की कल्पना भी भारवासियों के लिए न होता तो संभवत: भारत भूमि का अस्तित्व ही नहीं होत और यदि होता भी तो हिमालय जैसे अवध्य प्रहरी के अभाव में सदियों पहले ही आतताइयों विदेशी आक्रमणकारियों से इस धरा-धाम को लूट-खसोट और नोच-नोचकर पैरों तले रौंद डाला होता। यदि हिमालय न होता तो हमारे खेतों को अपने अमृत जल से सींचकर हरा-भरा रखने वाली नदियां भी नहीं रहती। उसके आस-पास स्वत: ही उग आए पेड़-पौधे वन वनस्पतियां तक न हो पाती। तब न तो पर्यावरण की रक्षा ही संभव हो पाती और न ही प्रदूषण से ही बचा जा सकता है। हमें फल-फूल, तरह-तरह की वनस्पतियां, औषधियां आदि कुछ भी तो नहीं मिल पाता। सभी कुछ वीरान और बंजर ही रहता। बहुत संभव है कि तब इस भूभाग पर जीवन के लक्षण ही दिख पड़ते।
यदि हिमालय न होता तो गंगा-यमुना जैसी हमारी धार्मिक आध्यात्मिक आस्थाओं की प्रतीक, मोक्षदायिनी, पतित, पावन नदियां भी न होती। तब न तो हमारी आस्थाओं के शिखर उठ बन पाते ओर न पुराणैतिहासिक तरह-तरह के मिथकों का जन्म ही संभव होता है। इतना ही नहीं, देवाधिदेव शिवजी तथा अन्य असंख्य देवी-देवताओं की कहानियों का जन्म भी नहीं हुआ होता। यदि हिमालय न होता तो गंगा-यमुना जैसी नदियां भी नहीं होती। इनके अभाव में इनके तटों पर बसने वाले तीर्थ धाम, छोटे, बड़े नगर, हमारी सभ्यता संस्कृति के प्रतीक अनेक प्रकार के मंदिर-शिवालय तथा अनय प्रकार के स्मारक भी कभी न बन पाते। इन पवित्र नदियों के तटों पर बस विकसित होने वाली भारतीय संस्कृति-सभ्यता का तब स्पात जन्म तक भी न हुआ होता।
यदि हिमालय न होता, तो आज हमारे पास निरंतर तपस्या एंव अनवरत अध्यवसाय से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान का जो अमर-अक्षय कोश है, वह भला कहां से आ पाता? हिमालय की घोटियों में पाई जाने वाली जड़ी-बूटियों ने, फूलों पत्तों और जंगली लगने वाले कईं प्रकार के फलों ने विश्व में औषधि एंव चिकित्सा-विज्ञान प्रदान किया है। हिमालय के अभाव में यह सबकुछ मानवता को कतई नहीं मिल पाता। तब मानवता रुज्ण एंव अस्वस्थ होकर असमय में ही अपनी मौत आप मा जाती। इस हिमालय ने हमें अनेक जातियों-प्रजातियों के पशु-पक्षी भी दिए हैं कि जिनका होना पर्यावरण की सुरक्षा के दृष्टि से परम आवश्यक है। इतना ही नहीं हिमालय ने मानवता को ज्ञान साधना की उच्चता और विराटता की, गहराई और सुदृढ़ स्थिरता की जो कल्पना दी है, ऊपर उठने की जो प्रेरणा और कल्पना प्रदान की है वह कभी न मिल पाती। तब मनुष्य अपने अस्तित्व एंव व्यक्तित्व में मात्र और नितांत बौना ही बना रहता। ऋतुएं और उनके परिवर्तन स्वरूप भी वास्तव में हिमालय की ही देन माने जाते हैं।
भारत का ताज, गिरिराज हिमालय यदि न होता, तो जैसा कि वैज्ञानिक मानते और कहते हैं तब उसके स्थान पर भी एक ठाठें मारता हुआ, अथाह गहरा और आर-पार फैला समुद्र ही होता यदि आज जो भारतीय भूमि तीन ओर से समुद्र के खारे पाने से गिर रही है, तब इसकी चौथी दिशा में भी पानी ही पानी होता। तब भारत देश एक विशा समुद्री टापू बनकर रह जाता।
वेदों में उपनिषदों में, पुराणों में महाकाव्यों में हिमालय का विस्तृत वर्णन है। हिमालय वास्तव में भारत के लिए वरदान है जो रत्नार्भा है। साधु संतों की साधनास्थली है, अनेक दुर्लभ पशु पक्ष्ज्ञियों की आश्रयस्थली है, तीर्थों का कुंज है, प्रकृति की लीलाभूमि है, सौंदर्य का सागर है। नंदन वन है, तथा तपस्वियों की तोभूमि है। इसे कोटिश: प्रणाम।
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