अक्सर लोगों को कहते है कि कि मनुष्य अच्छे-बुरे जैसे भी कर्म किया करता है, उसी प्रकार से उसे हानि-लाभ तो उठाने ही पड़ते हैं। उन्हें जान-सुनकर विश्व का व्यवहार भी उसके प्रति उसके लिए कर्मों जैसा ही हो जाया करता है, अर्थात अच्छे कर्म वाला सुयश और मान-सम्मान का भागी बन जाया करता है। लेकिन शीर्षक मुक्ति में कविवर तुलसीदास ने इस प्रचलित धारणा के विपरीत मत प्रकट करते हुए कहा है कि-
‘हानि-लाभ-जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ।’ अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य आनि-लाभ, यश-अपयश जो कुछ भी अर्जित कर पाता है। उसमें उसका अपना वश या हाथ कतई नहीं रहा करता है। विधाता की जब जैसी इच्छा हुआ करती है, तब उसे उसी प्रकार की लाभ-हानि तो उठानी ही पड़ती है।
एक उदाहरण से इस बात की वास्तविकता सहज ही समझी जा सकती है। एक किसान दिन-रात मेहनत करके फसल उगाता है। लहलहाती फसलों के रूप में अपने कर्म और परिश्रम का सुफल निहारकर मन ही मन फला नहीं समाता। किंतु अचानक रात में अतिवृष्टि होकर या बाढ़ आकर उस सबको तहस-नहस करके रख देती है। अब इसे आप क्या कहना चाहेंगे? हानि-लाभ सभी कुछ वास्तव में विधाता के ही हाथ में है। इसके सिवा और कह भी क्या सकते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य अच्छे-बुरे तरह-तरह के कर्म करता, कई प्रकार के पापड़ बेलकर धन-संपति अर्जित एंव संचित करता रहता है।। यह सोच-विचारकर मन ही मन बड़ा प्रसन्न भी रहता करता है कि उसे भविष्य के लिए किसी प्रकार की चिंता नहीं पड़ती। तभी अचानक कोई महामारी, कोई दुर्घटना होकर उसके प्राणों को हर लेती है और उसके भावी सुखों की कल्पना का आधार सारी धन संपति उसे सुख तो क्या देना उसके प्राणों की रक्षा तक नहीं कर पाती। इसमें भी तो विधाता की इच्छा ही मानी जाती है।
कई बार मनुष्य अच्छा कर्म इसलिए करता है कि उसका परिणाम मान-यश बढ़ाने वाला होगा। सो वह उसक कर्म को करता जाता है। पर उसके विरोधी पैदा होकर उसके सारे परिश्रम को व्यर्थ कर देते हैं। उसे मान की जगह अपमान और यश की जगह अपयश भोगने को विवश होना पड़ता है।
इस प्रकार यह मान्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि आदमी के अपने हाथ में कुछ नहीं है। जो कुछ है, यह विधि के हाथ में ही है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था अपना भला बुरा मेरे अर्पित कर दो। तुम केवल कर्तव्य कर्म मेरा ही आदेश मानकर करते जाओ। सो कवि का भी यहां यही आशय है कि हानि-लाभ, यश-अपयश आदि सभी को भगवान के हाथ में मानकर अपने कर्तव्यों का पालन करते जाओ बस।
‘हानि-लाभ-जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ।’ अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य आनि-लाभ, यश-अपयश जो कुछ भी अर्जित कर पाता है। उसमें उसका अपना वश या हाथ कतई नहीं रहा करता है। विधाता की जब जैसी इच्छा हुआ करती है, तब उसे उसी प्रकार की लाभ-हानि तो उठानी ही पड़ती है।
एक उदाहरण से इस बात की वास्तविकता सहज ही समझी जा सकती है। एक किसान दिन-रात मेहनत करके फसल उगाता है। लहलहाती फसलों के रूप में अपने कर्म और परिश्रम का सुफल निहारकर मन ही मन फला नहीं समाता। किंतु अचानक रात में अतिवृष्टि होकर या बाढ़ आकर उस सबको तहस-नहस करके रख देती है। अब इसे आप क्या कहना चाहेंगे? हानि-लाभ सभी कुछ वास्तव में विधाता के ही हाथ में है। इसके सिवा और कह भी क्या सकते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य अच्छे-बुरे तरह-तरह के कर्म करता, कई प्रकार के पापड़ बेलकर धन-संपति अर्जित एंव संचित करता रहता है।। यह सोच-विचारकर मन ही मन बड़ा प्रसन्न भी रहता करता है कि उसे भविष्य के लिए किसी प्रकार की चिंता नहीं पड़ती। तभी अचानक कोई महामारी, कोई दुर्घटना होकर उसके प्राणों को हर लेती है और उसके भावी सुखों की कल्पना का आधार सारी धन संपति उसे सुख तो क्या देना उसके प्राणों की रक्षा तक नहीं कर पाती। इसमें भी तो विधाता की इच्छा ही मानी जाती है।
कई बार मनुष्य अच्छा कर्म इसलिए करता है कि उसका परिणाम मान-यश बढ़ाने वाला होगा। सो वह उसक कर्म को करता जाता है। पर उसके विरोधी पैदा होकर उसके सारे परिश्रम को व्यर्थ कर देते हैं। उसे मान की जगह अपमान और यश की जगह अपयश भोगने को विवश होना पड़ता है।
इस प्रकार यह मान्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि आदमी के अपने हाथ में कुछ नहीं है। जो कुछ है, यह विधि के हाथ में ही है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था अपना भला बुरा मेरे अर्पित कर दो। तुम केवल कर्तव्य कर्म मेरा ही आदेश मानकर करते जाओ। सो कवि का भी यहां यही आशय है कि हानि-लाभ, यश-अपयश आदि सभी को भगवान के हाथ में मानकर अपने कर्तव्यों का पालन करते जाओ बस।
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