अनिवार्य सैनिक शिक्षा
Compulsory Military Education
गीता में कहा गया है- ’चतुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः’ अर्थात गुण और कर्म के आधार पर मैंने चार वर्णो का निमार्ण किया है।’ यह बात आज विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हो रही है कि प्रत्येक मस्तिष्क, प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। एक-दूसरे की रूचि और विचारों में भिन्नता की प्रकृति होती है। परिणामस्वरूप न तो सभी वैज्ञानिक, न तो सभी कलाकार और न तो सभी सैनिक ही हो सकते हैं। इसी आधार पर प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में क्षात्र-धर्म का विशेष महत्व था।
भारतीय मनीषियों की दृष्टि में शारीरिक शक्ति आत्मिक शक्ति के समक्ष नगण्य थी। अतः जनसाधारण सैनिक शिक्षा मंे सामान्यतः प्रवृति नहीं होता था। वह केवल राजाओं, राजपुत्रों एवं राजनयिक प्रजा तक ही सीमित थी। वे युद्ध कला में पारंगत होते थे तथा उन्हें अपने देश की आन-बान पर गर्व होता था। वे अपने देश की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर देते थे। इस धर्मप्राण देश के सभी राजाओं के पास अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार सुव्यवस्थित सेना होती थी जो अपने राजा एवं राज्य की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने को तैयार रहती थी। रामायण काल में राम-रावण की सेना के मध्य भंयकर युद्ध हुआ था। महाभारत काल में कौरव-पाण्डवों का रोमांचकारी युद्ध हुआ जिसमें कौरवों की 11 अक्षौहिणी सेना और पाण्डवों की 7 अक्षौहिणी सेना मारी गई। उस समय जनता में दया, अहिंसा तथा क्षमा-ये ही प्रधान गुण थे, फिर भी सैनिक शिक्षा की महता कभी कम नहीं हुई।
आधुनिक आर्थिक एवं वैज्ञानिक युग के आगमन के साथ ही धार्मिक प्रवृति का भी हृास हुआ। आर्थिक साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा से एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर बलात आर्थिक आधिपत्य व वैज्ञानिक प्रभाव जमाने का प्रयास करने लगे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने एवं विध्वंस करने हेतू तरह-तरह की कलुषित योजनाएं एवं षड्यंत्र बनाने लगे। ऐसी ही विषम परिस्थियों मंे अपनी अनन्त साधनाओं, तपस्याओं और बलिदानों के पश्चात हम स्वाधीन हुए। हमने स्वराज्य प्राप्ति के बाद प्राचीन भारतीय शाश्वत मूल्यों जैसे-सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, क्षमा, दया, शांति आदि को पुनप्र्रतिष्ठित किया।
प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि सबल निर्बल को, बड़े छोटे को, धनी निर्धन को अपना ग्रास बनाते हैं और बनाएंगे। इसलिए व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक सभी के लिए यह अनिवार्य आवश्यकता हो जाती हैं कि वह आज सैन्य संसाधनों का समुचित विस्तार करे। राष्ट्र की सैन्य शक्ति तभी मजबूत होगी जब प्रत्येक नागरिक सैनिक शिक्षा में दक्ष हो।
स्वस्थ शरीर मंे ही स्वस्थ मन निवास करता है। भारतीय समाज में युवक सबल होगे तो देश सबल होगा। आज चंहु ओर अनुशासनहीनता का बोलबाला है। सैनिक अनुशासन सर्वविदित है। सबसे छोटे स्तर से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारी तक तुरन्त आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझते हैं। सभी में अनुशासन और श्रम की प्रवृति देखी जाती है। सैनिक शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि इससे हमारे समाज में फैलती अनुशासनहीनता, मर्यादाहीनता एवं श्रमहीनतर पर अंकुश लगेगा।
स्वाधीनता के बाद स्कूलों, काॅलेजों तथा विश्वविद्यालयों मंे वैकल्पिक तौर पर विद्यार्थियों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता है। लेकिन सैनिक प्रशिक्षण की यह विकल्पता समाप्त कर जूनियर से लेकर स्नातक कक्षाओं के सभी विद्यार्थियों के लिए सैनिक-प्रशिक्षण अनिवार्य कर देना चाहिए।
अन्त मंे देश की आन्तरिक एवं बाह्म आक्रमणांे से रक्षा, शक्तिशाली राष्ट्रों से अपनी संप्रभुता की सुरक्षा तथा देशवासियों के शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक उन्नयन के लिए सैनिक शिक्षा की परमावश्यकता है। यह शिक्षा की कार्यशीलता, श्रमशीलता एवं स्वावलम्बन का शिक्षक है जो प्रमादग्रस्त व्यक्ति एवं राष्ट्र के सारे बंद कपाटों को खोल देती है।
Compulsory Military Education
गीता में कहा गया है- ’चतुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः’ अर्थात गुण और कर्म के आधार पर मैंने चार वर्णो का निमार्ण किया है।’ यह बात आज विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हो रही है कि प्रत्येक मस्तिष्क, प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। एक-दूसरे की रूचि और विचारों में भिन्नता की प्रकृति होती है। परिणामस्वरूप न तो सभी वैज्ञानिक, न तो सभी कलाकार और न तो सभी सैनिक ही हो सकते हैं। इसी आधार पर प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में क्षात्र-धर्म का विशेष महत्व था।
भारतीय मनीषियों की दृष्टि में शारीरिक शक्ति आत्मिक शक्ति के समक्ष नगण्य थी। अतः जनसाधारण सैनिक शिक्षा मंे सामान्यतः प्रवृति नहीं होता था। वह केवल राजाओं, राजपुत्रों एवं राजनयिक प्रजा तक ही सीमित थी। वे युद्ध कला में पारंगत होते थे तथा उन्हें अपने देश की आन-बान पर गर्व होता था। वे अपने देश की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर देते थे। इस धर्मप्राण देश के सभी राजाओं के पास अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार सुव्यवस्थित सेना होती थी जो अपने राजा एवं राज्य की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने को तैयार रहती थी। रामायण काल में राम-रावण की सेना के मध्य भंयकर युद्ध हुआ था। महाभारत काल में कौरव-पाण्डवों का रोमांचकारी युद्ध हुआ जिसमें कौरवों की 11 अक्षौहिणी सेना और पाण्डवों की 7 अक्षौहिणी सेना मारी गई। उस समय जनता में दया, अहिंसा तथा क्षमा-ये ही प्रधान गुण थे, फिर भी सैनिक शिक्षा की महता कभी कम नहीं हुई।
आधुनिक आर्थिक एवं वैज्ञानिक युग के आगमन के साथ ही धार्मिक प्रवृति का भी हृास हुआ। आर्थिक साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा से एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर बलात आर्थिक आधिपत्य व वैज्ञानिक प्रभाव जमाने का प्रयास करने लगे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने एवं विध्वंस करने हेतू तरह-तरह की कलुषित योजनाएं एवं षड्यंत्र बनाने लगे। ऐसी ही विषम परिस्थियों मंे अपनी अनन्त साधनाओं, तपस्याओं और बलिदानों के पश्चात हम स्वाधीन हुए। हमने स्वराज्य प्राप्ति के बाद प्राचीन भारतीय शाश्वत मूल्यों जैसे-सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, क्षमा, दया, शांति आदि को पुनप्र्रतिष्ठित किया।
प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि सबल निर्बल को, बड़े छोटे को, धनी निर्धन को अपना ग्रास बनाते हैं और बनाएंगे। इसलिए व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक सभी के लिए यह अनिवार्य आवश्यकता हो जाती हैं कि वह आज सैन्य संसाधनों का समुचित विस्तार करे। राष्ट्र की सैन्य शक्ति तभी मजबूत होगी जब प्रत्येक नागरिक सैनिक शिक्षा में दक्ष हो।
स्वस्थ शरीर मंे ही स्वस्थ मन निवास करता है। भारतीय समाज में युवक सबल होगे तो देश सबल होगा। आज चंहु ओर अनुशासनहीनता का बोलबाला है। सैनिक अनुशासन सर्वविदित है। सबसे छोटे स्तर से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारी तक तुरन्त आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझते हैं। सभी में अनुशासन और श्रम की प्रवृति देखी जाती है। सैनिक शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि इससे हमारे समाज में फैलती अनुशासनहीनता, मर्यादाहीनता एवं श्रमहीनतर पर अंकुश लगेगा।
स्वाधीनता के बाद स्कूलों, काॅलेजों तथा विश्वविद्यालयों मंे वैकल्पिक तौर पर विद्यार्थियों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता है। लेकिन सैनिक प्रशिक्षण की यह विकल्पता समाप्त कर जूनियर से लेकर स्नातक कक्षाओं के सभी विद्यार्थियों के लिए सैनिक-प्रशिक्षण अनिवार्य कर देना चाहिए।
अन्त मंे देश की आन्तरिक एवं बाह्म आक्रमणांे से रक्षा, शक्तिशाली राष्ट्रों से अपनी संप्रभुता की सुरक्षा तथा देशवासियों के शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक उन्नयन के लिए सैनिक शिक्षा की परमावश्यकता है। यह शिक्षा की कार्यशीलता, श्रमशीलता एवं स्वावलम्बन का शिक्षक है जो प्रमादग्रस्त व्यक्ति एवं राष्ट्र के सारे बंद कपाटों को खोल देती है।
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