हिंदी-साहित्य को नारियों की देन hindi sahitya ko naariyo ki den hindi eessay
साहित्य को किसी भी जाति और समाज की जीवंतता को प्रमाणित करने वाली धडक़न कहा जा सकता है। जिस प्रकार जीवन और समाज की धडक़न बनाए रखने में स्त्री-पुरुष दोनों का सामान हाथ है, उसी प्रकार जीवन के विविध व्यावहारिक एंव भावात्मक स्वरूपों के निर्माण में भी दोनों का समान हाथ है। विश्व के सभी महान विचारक यह तथ्य एकमत से, मुक्तभाव से स्वीकार करते हैं कि वैदिक ऋचाओं की रचना या दर्शन में अनेक आर्य नारियों का हथ रहा। कहा जाता है कि अनुसूया जैसी ऋषि-पत्नियों ने भी अनेक वैदिक ऋचाओं के दर्शन एंव प्रणयन करके वैदिक साहित्य को समृद्ध किया। वैदिक काल के बाद लौकिक संस्कृत-काल की अनेक विदुषी नारियों के नाम मिलते है, अनुमान किया जा सकता है कि उन्होंने भी साहित्य-सृजन किया होगा, जो या तो समय के गर्त में समा गया या फिर पुरुषों के नाम से प्रचारित हो गया। यही बात परवर्ती पालि, प्राकृतों और अपभं्रश भाषाओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जो किसी विशिष्ट नारी-साहित्यकार का नामोल्लोख नहीं मिलताा। हां आगे चलकर च्यारहवीं शताब्दी के बार से या फिर कहा जा सकता है कि हिंदी-साहिहत्य के भक्ति काल से नारी-साहित्यकारों के नाम अवश्य मिलने लगते हैं कि जिन्होंने अपनी सृजन प्रतिभा के बल पर साहित्य का सम्मान, वर्चस्व और प्रभाव बढ़ाया। वह सब आज भी बना हुआ है।
भक्तिकाल में चलने वाली सगुण भक्तिधारा की कृश्ण शाखा ने ही सर्वप्रथम हिंदी-काव्यजगत को कुछ महत्वपूर्ण साधिकांए प्रदान की। उनमें कृष्ण-दीवानी मीरा का नाम सर्वोपरि एंव सर्वप्रमुख है। मीरा की वाणी में जो सहजता, तरसता, अपनापन, तलीनता और समर्पित निष्ठा है, वास्तव में वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहं होती। मीरा जैसी प्रेम की पीर ओर विरह की वेदनाा भी अपनी सहज स्वाभाविकता में कहीं अन्यत्र सुलभ नहीं। मीरा की भक्ति परंपरा में ही बाद में बीबी ताज का नाम आता है, जो कृष्ण के सांवले-सलोने स्वरूप पर कुर्बान थीं और इस समर्पित भावना के कारण ही वह मुसलमान होकर भी हिंदवानी ही रहेंगी। जैसी घोषणांए मुक्तभाव से किया करती थीं। इसके बाद शैख नामक एक कवयित्रि की चर्चा भी मिलती है, जिसके बारे में कहा जाता है कि काव्य प्रतिभा में तो वह धनी थी ही, रूप-यौवन में भी धनी थी। उसी के प्रभाव से मूलत: ब्राह्मण जाति का कवि बाद में मुसलमान बनकर आजम नाम से प्रसिद्धि पा सका। हिंदी साहित्य में संत-काव्य-परंपरा में सहजोबाई का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि वह भी एक प्रतिभावन कवयित्री थी और इस क्षेत्र में उसका खासा प्रभाव था। इस प्रकार स्पष्ट या प्रत्यक्ष रूप से भक्ति-काल से नारियों का हिंदी काव्य के निर्माण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान आरंभ हो जाता है।
आगे चलकर रीतिकाल में भी कुछ ऐसी ज्ञात-अज्ञात नारियों की चर्चा मिली है जो विशिष्ट काव्य-प्रतिभा की धनी थीं। कहा जाता है कि रीतिकाल के प्रमुख एंव प्रतिनिधि कवि बिहारी की पत्नी भी कवयित्री थी। आज जो दोहे बिहारी की रचना माने जाते हैं, उनमें से अनेक उनकी पत्नी ने रचे थे। डॉ. सनातक-संपादित ‘बिहारी’ के परिशिष्ट में ऐसे अनेक चौपदे भी दिए गए हैं जो बिहारी की पत्नी द्वारा रचे गए कहे जाते हैं। इसी प्रकार रीतिकाल के एक अन्य कवि गिरधर कवि राय की पत्नी को भी अच्छी कवयित्री कहा जाता है। उसका नाम ‘साई’ था। आलोचक मानते हैं कि गिरधर की प्रसिद्ध कुंडलियों में से जिनसे साई जुड़ा हुआ है, वे वास्तव में उनकी इस नाम वाली पत्नी की ही रची हुई है। दूसरी मान्यता यह है कि कविवर गिरधर और उनकी पत्नी मिलकर काव्य रचा करते थे। तभी तो अनेक कुंडलियों में दोनों के नाम सामानांतर पर उपलब्ध होते हैं। उन प्रमुख नामों के अतिरिक्त रीतिकाल में कुछ और ऐसी नारियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं, जो काव्य-रचना द्वारा साहित्य को समृद्ध बनाया करती थीं। राजमहलों रहने के कारण , दूसरे युग की पुरुष-प्रधान नैतिकताओं के कारण उनके नाम सबके सामने नहीं आ पाए।
आधुनिक काल में पहुंचकर तो हिंदी-साहित्य के लिए नारी-सर्जकों का योगदान बहुत बढ़ गया है। काव्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में नारियां समान स्तर पर सक्रिय रही हैं। काव्य और गद्य के विभिन्न विधात्मक क्षेत्रों में इनके योगदान को आने वाली शताब्दियों तक कौन भुला सकता है। हमारे विचार में काव्य की चर्चा हो या गद्य के विधात्मक रूपों की, श्रीमती महादेवी की चर्चा के बिना उसे अपूर्ण ही समझा जाएगा। महादेवी छायावादी काव्यधारा के चार स्तंभो में से एक प्रमुख स्तंभ तो रही ही सही, गद्य-सर्जना के क्षेत्रों में उन्हें एक प्रमुख शैलीकार का मान और महत्व प्रदान किया जाता है। संस्मरण, रेखाचित्र और निबंध-रचना के क्षेत्रों में इन्होंने जिन नव्य एंव भव्य शैलियों का प्रतिष्ठापन किया है, उनके कारण हिंदी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा। आजकल और नई नवयुवक नारियां भी हिंदी काव्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दे रही हैं।
आज का युग गद्य-रचना का युग ही प्रमुखत: स्वीकारा जाता है। गद्य के विधात्मक रूपों, विशेषकर कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में कई नारी सर्जकों का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाने लगा है। मन्नू भंडारी जैसी कुछ कहानी-लेखिकांए भी हैं कि जिनकी कहानियों के अनेक फिल्मी एंव नाट्य रूपांतर सफलता और धूम-धड़ाके के साथ प्रस्तुत किए जा चुके और आज भी होते रहते हैं। इसी प्रकार हिंदी-एकांकी और कहानी के क्षेत्र में उषा मित्रा का नाम भी अपना आधारभूत मूल्य-महत्व रखता है। रजनी पनिकर को उपन्यास के क्षेत्र में विशेष स्थान प्राप्त है। ममता कालियां, सुधा अरोड़ा, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, शांति मेहरोत्रा, शिवानी, मालती जोशी, मृणाल पांडेय, सुनीता जैन, इंदु बाली, ऋता शुक्ला आदि ेसे नामी नाम हैं कि जो आज भी हिदंी कहानी के विकास के लिए समर्पित भाव से काम कर रहे हैं।
इस सारे विवेच्य एंव विश्लेषण के बाद यह बात कहनकी कोई अधिक या विशेष आवश्यकता नहं रह जाती कि हिंदी साहित्य को नरियों की देन क्या और कितनहै। वास्तव में भारतीय नारियों ने जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों के समान साहित्य-क्षेत्र को भी अपनी सृजनात्मक और जागररुक प्रतिभा से समृद्ध एंव प्रशस्त किया है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। उन्होंने साहित्य के हर युग के हर रूप को अपनी कोमल-कांत भाव-प्रवणता से प्राणमय और प्रभावी बनाया है। उसे भाषा, शौली और नवीन शिल्प तो दिया ही हैं। भावों-विचारों का अजस्र मानवीय स्त्रोत भी विधात्मक तटबंधो में प्रवाहित किया है। उसमें स्वर-संगीत की सरिता भी बढ़ाई है और नव-निर्माण के ज्वार भी उभारे हैं। साहित्य के माध्यम से नारियों ने मां की ममता, बहन का स्नेह, प्रियतमा का प्यार सभी कुछ दिया है। संबंधों की चर्चा जिनती गहराई से नारी-सर्जकों की रचनाओं में मिलती है, अन्यता कहीं सुलभ नहीं है। इस सारे विवेचचन का सारांश यह है कि नारी-जीवन ने हमारे स्थूल जगत के समान ही साहित्य जगत को भी अपनी तप पूत कलात्मक प्रतिभा से ऊर्जस्वी और अनवरत गतिशील बनाया है। यह देन कम करके रेखांकित नहीं की जा सकती।
साहित्य को किसी भी जाति और समाज की जीवंतता को प्रमाणित करने वाली धडक़न कहा जा सकता है। जिस प्रकार जीवन और समाज की धडक़न बनाए रखने में स्त्री-पुरुष दोनों का सामान हाथ है, उसी प्रकार जीवन के विविध व्यावहारिक एंव भावात्मक स्वरूपों के निर्माण में भी दोनों का समान हाथ है। विश्व के सभी महान विचारक यह तथ्य एकमत से, मुक्तभाव से स्वीकार करते हैं कि वैदिक ऋचाओं की रचना या दर्शन में अनेक आर्य नारियों का हथ रहा। कहा जाता है कि अनुसूया जैसी ऋषि-पत्नियों ने भी अनेक वैदिक ऋचाओं के दर्शन एंव प्रणयन करके वैदिक साहित्य को समृद्ध किया। वैदिक काल के बाद लौकिक संस्कृत-काल की अनेक विदुषी नारियों के नाम मिलते है, अनुमान किया जा सकता है कि उन्होंने भी साहित्य-सृजन किया होगा, जो या तो समय के गर्त में समा गया या फिर पुरुषों के नाम से प्रचारित हो गया। यही बात परवर्ती पालि, प्राकृतों और अपभं्रश भाषाओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जो किसी विशिष्ट नारी-साहित्यकार का नामोल्लोख नहीं मिलताा। हां आगे चलकर च्यारहवीं शताब्दी के बार से या फिर कहा जा सकता है कि हिंदी-साहिहत्य के भक्ति काल से नारी-साहित्यकारों के नाम अवश्य मिलने लगते हैं कि जिन्होंने अपनी सृजन प्रतिभा के बल पर साहित्य का सम्मान, वर्चस्व और प्रभाव बढ़ाया। वह सब आज भी बना हुआ है।
भक्तिकाल में चलने वाली सगुण भक्तिधारा की कृश्ण शाखा ने ही सर्वप्रथम हिंदी-काव्यजगत को कुछ महत्वपूर्ण साधिकांए प्रदान की। उनमें कृष्ण-दीवानी मीरा का नाम सर्वोपरि एंव सर्वप्रमुख है। मीरा की वाणी में जो सहजता, तरसता, अपनापन, तलीनता और समर्पित निष्ठा है, वास्तव में वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहं होती। मीरा जैसी प्रेम की पीर ओर विरह की वेदनाा भी अपनी सहज स्वाभाविकता में कहीं अन्यत्र सुलभ नहीं। मीरा की भक्ति परंपरा में ही बाद में बीबी ताज का नाम आता है, जो कृष्ण के सांवले-सलोने स्वरूप पर कुर्बान थीं और इस समर्पित भावना के कारण ही वह मुसलमान होकर भी हिंदवानी ही रहेंगी। जैसी घोषणांए मुक्तभाव से किया करती थीं। इसके बाद शैख नामक एक कवयित्रि की चर्चा भी मिलती है, जिसके बारे में कहा जाता है कि काव्य प्रतिभा में तो वह धनी थी ही, रूप-यौवन में भी धनी थी। उसी के प्रभाव से मूलत: ब्राह्मण जाति का कवि बाद में मुसलमान बनकर आजम नाम से प्रसिद्धि पा सका। हिंदी साहित्य में संत-काव्य-परंपरा में सहजोबाई का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि वह भी एक प्रतिभावन कवयित्री थी और इस क्षेत्र में उसका खासा प्रभाव था। इस प्रकार स्पष्ट या प्रत्यक्ष रूप से भक्ति-काल से नारियों का हिंदी काव्य के निर्माण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान आरंभ हो जाता है।
आगे चलकर रीतिकाल में भी कुछ ऐसी ज्ञात-अज्ञात नारियों की चर्चा मिली है जो विशिष्ट काव्य-प्रतिभा की धनी थीं। कहा जाता है कि रीतिकाल के प्रमुख एंव प्रतिनिधि कवि बिहारी की पत्नी भी कवयित्री थी। आज जो दोहे बिहारी की रचना माने जाते हैं, उनमें से अनेक उनकी पत्नी ने रचे थे। डॉ. सनातक-संपादित ‘बिहारी’ के परिशिष्ट में ऐसे अनेक चौपदे भी दिए गए हैं जो बिहारी की पत्नी द्वारा रचे गए कहे जाते हैं। इसी प्रकार रीतिकाल के एक अन्य कवि गिरधर कवि राय की पत्नी को भी अच्छी कवयित्री कहा जाता है। उसका नाम ‘साई’ था। आलोचक मानते हैं कि गिरधर की प्रसिद्ध कुंडलियों में से जिनसे साई जुड़ा हुआ है, वे वास्तव में उनकी इस नाम वाली पत्नी की ही रची हुई है। दूसरी मान्यता यह है कि कविवर गिरधर और उनकी पत्नी मिलकर काव्य रचा करते थे। तभी तो अनेक कुंडलियों में दोनों के नाम सामानांतर पर उपलब्ध होते हैं। उन प्रमुख नामों के अतिरिक्त रीतिकाल में कुछ और ऐसी नारियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं, जो काव्य-रचना द्वारा साहित्य को समृद्ध बनाया करती थीं। राजमहलों रहने के कारण , दूसरे युग की पुरुष-प्रधान नैतिकताओं के कारण उनके नाम सबके सामने नहीं आ पाए।
आधुनिक काल में पहुंचकर तो हिंदी-साहित्य के लिए नारी-सर्जकों का योगदान बहुत बढ़ गया है। काव्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में नारियां समान स्तर पर सक्रिय रही हैं। काव्य और गद्य के विभिन्न विधात्मक क्षेत्रों में इनके योगदान को आने वाली शताब्दियों तक कौन भुला सकता है। हमारे विचार में काव्य की चर्चा हो या गद्य के विधात्मक रूपों की, श्रीमती महादेवी की चर्चा के बिना उसे अपूर्ण ही समझा जाएगा। महादेवी छायावादी काव्यधारा के चार स्तंभो में से एक प्रमुख स्तंभ तो रही ही सही, गद्य-सर्जना के क्षेत्रों में उन्हें एक प्रमुख शैलीकार का मान और महत्व प्रदान किया जाता है। संस्मरण, रेखाचित्र और निबंध-रचना के क्षेत्रों में इन्होंने जिन नव्य एंव भव्य शैलियों का प्रतिष्ठापन किया है, उनके कारण हिंदी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा। आजकल और नई नवयुवक नारियां भी हिंदी काव्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दे रही हैं।
आज का युग गद्य-रचना का युग ही प्रमुखत: स्वीकारा जाता है। गद्य के विधात्मक रूपों, विशेषकर कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में कई नारी सर्जकों का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाने लगा है। मन्नू भंडारी जैसी कुछ कहानी-लेखिकांए भी हैं कि जिनकी कहानियों के अनेक फिल्मी एंव नाट्य रूपांतर सफलता और धूम-धड़ाके के साथ प्रस्तुत किए जा चुके और आज भी होते रहते हैं। इसी प्रकार हिंदी-एकांकी और कहानी के क्षेत्र में उषा मित्रा का नाम भी अपना आधारभूत मूल्य-महत्व रखता है। रजनी पनिकर को उपन्यास के क्षेत्र में विशेष स्थान प्राप्त है। ममता कालियां, सुधा अरोड़ा, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, शांति मेहरोत्रा, शिवानी, मालती जोशी, मृणाल पांडेय, सुनीता जैन, इंदु बाली, ऋता शुक्ला आदि ेसे नामी नाम हैं कि जो आज भी हिदंी कहानी के विकास के लिए समर्पित भाव से काम कर रहे हैं।
इस सारे विवेच्य एंव विश्लेषण के बाद यह बात कहनकी कोई अधिक या विशेष आवश्यकता नहं रह जाती कि हिंदी साहित्य को नरियों की देन क्या और कितनहै। वास्तव में भारतीय नारियों ने जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों के समान साहित्य-क्षेत्र को भी अपनी सृजनात्मक और जागररुक प्रतिभा से समृद्ध एंव प्रशस्त किया है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। उन्होंने साहित्य के हर युग के हर रूप को अपनी कोमल-कांत भाव-प्रवणता से प्राणमय और प्रभावी बनाया है। उसे भाषा, शौली और नवीन शिल्प तो दिया ही हैं। भावों-विचारों का अजस्र मानवीय स्त्रोत भी विधात्मक तटबंधो में प्रवाहित किया है। उसमें स्वर-संगीत की सरिता भी बढ़ाई है और नव-निर्माण के ज्वार भी उभारे हैं। साहित्य के माध्यम से नारियों ने मां की ममता, बहन का स्नेह, प्रियतमा का प्यार सभी कुछ दिया है। संबंधों की चर्चा जिनती गहराई से नारी-सर्जकों की रचनाओं में मिलती है, अन्यता कहीं सुलभ नहीं है। इस सारे विवेचचन का सारांश यह है कि नारी-जीवन ने हमारे स्थूल जगत के समान ही साहित्य जगत को भी अपनी तप पूत कलात्मक प्रतिभा से ऊर्जस्वी और अनवरत गतिशील बनाया है। यह देन कम करके रेखांकित नहीं की जा सकती।
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