विद्यार्थी जीवन : कर्तव्य और अधिकार
आम बोलचाल की सामान्य परिभाषा में विद्या-प्राप्ति का इच्छुक विद्यार्थी कहा जाता है। इस दृष्टि से सामान्यतया शिक्षा-कला को विद्यार्थी-जीवन कहा जा सकता है। यों तो मनुष्य सारा जीवन ही कुछ-न-कुछ सीखता रहता है पर उसे विद्यार्थी नहीं कहा जात। जब तक वह स्कूल-कॉलेज जाता और उनके अनुरूप परीक्षांए देता रहता है, उसी कालावधि को विद्यार्थी काल कहते हैं। इस काल में अपने नाम के अनुरूप व्यक्ति का मुख्य कर्म और कर्तव्य मन लगाकर विद्या का अध्ययन करना ही हुआ करता है। विद्या का अध्ययन करने का मुख्य अर्थ और प्रयोजन मात्र कुछ परीक्षांए पास करना न होकर होता है कुछ नया सीखना। जीवन का अर्थ समझकर, उसको सफल-सार्थक बनाने के लिए व्यक्ति जो कुछ भी सीखता है, व्यापक अर्थों में उस सबको विद्या ही कहते हैं और उसकी अर्थी- अर्थात इच्छुक को भी व्यापक अर्थ में विद्यार्थी कहा जाता है।
विद्यार्थी-काल की तुलना कच्ची मिट्टी के लोंदे से की जा सकती है। कच्ची मिट्टी को तोड़-मरोडक़र उससे कुछ भी बनाया जा सकता है। यह बनाने वाले पर निर्भर करता है कि वह कुछ कुरूप बनाता है या स्वरूपवान। ठीक उसी प्रकार अपने मन-मस्तिष्क को मोडक़र एक विद्यार्थी भी अपने आपको चाहे जैसा बना ले।
जीवन में सीखने और पढऩे के साथ-साथ अपनी सभी प्रकार की आदतों को भी संतुलित बनाए रख्ने का प्रत्यन्न करना विद्यार्थी का एक एकर्तव्य माना जाता है। जीवन और समाज में व्यक्ति अपनी अच्छी-बुरी आदतों एंव व्यवहार से ही पहचाना जाता है। इस प्रकार सब प्रकार की बुराइयों से दूर रहकर मन-मस्तिष्क के विकास के लिए खूबर पढऩा-लिखना, स्वास्थ्य-सौंदर्य के लिए खेलना-कूदना, सब प्रकार की चिंताओं से मुक्त रहकर अपना चरित्र-निर्माण करना ही हम विद्यार्थी जीवन के मुख्य कर्तव्य कह सकते हैं। ऐसा करके ही वह भविष्य का अच्छा नागरिक भी बन सकता है।
कर्तव्य-पालन के बाद ही अधिकार का प्रश्न उइता है। हमारी विचार में जहां तक विद्यार्थी के अधिकारिों का प्रश्न है, एक वाक्य में कहा जा सकता है कि स्वस्थ मन-मस्तिष्क से विद्या अध्ययन करना और इस सबके लिए उचित व्यचवस्स्था की मांग करना ही उसका मुख्य कर्तव्य है। यही मुख्य अधिकार भी है। वह अच्छी और व्यावहारिक शिक्षा-व्यवस्था की मांग भी कर सकता है। घर-परिवार, समाज और शासन सभी से वह अपने रहन-सहन, खान-पान, अच्छा वातावरण बनाने को कहने का भी अधिकारी है। वह यह भी मांग कर सकता है कि उसके शिक्षक आदर्श आचरण और व्यवहार वाले व्यक्ति हों। समाज उसको व्यावहारिक रूप में दक्ष बनाने के लिए सुशासन और अनुशासन का आदर्श प्रदान करें।
इस प्रकार स्पष्ट है कि समाज के प्रत्येक प्राणी के सामने विद्यार्थी को भी कईं प्रकार के कर्तव्य एंव अधिकार प्राप्त हैं। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज का विद्यार्थी तथाकथित और मनमानी अधिकारों की दुहाई तो देता है, विद्या-अध्ययन जैसे प्राथमिक कर्तव्य की ओर उसका ध्यान ठीक से नहीं जा पाता। यही कारण है कि आज शिक्षा समाप्त करने के बाद जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करने पर भी युवक प्रसन्न एंव संतुलित नहीं होता, उसके अधिकार स्वत: ही समाप्त हो ाजया करते हैं। जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी काल में यदि हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन बनाए रखना सीख लेते हैं, तो कोई कारण नहीं कि हमारा अपना और हमारे समाज-देश का भविष्य उज्जवल न हो। आज का युवा विद्यार्थी वर्ग इस तथ्य को पीछे समझने लगा है, तो उसे भविष्य के लिए यह एक शुभ लक्ष्य स्वीकारा जा सकता है।
आम बोलचाल की सामान्य परिभाषा में विद्या-प्राप्ति का इच्छुक विद्यार्थी कहा जाता है। इस दृष्टि से सामान्यतया शिक्षा-कला को विद्यार्थी-जीवन कहा जा सकता है। यों तो मनुष्य सारा जीवन ही कुछ-न-कुछ सीखता रहता है पर उसे विद्यार्थी नहीं कहा जात। जब तक वह स्कूल-कॉलेज जाता और उनके अनुरूप परीक्षांए देता रहता है, उसी कालावधि को विद्यार्थी काल कहते हैं। इस काल में अपने नाम के अनुरूप व्यक्ति का मुख्य कर्म और कर्तव्य मन लगाकर विद्या का अध्ययन करना ही हुआ करता है। विद्या का अध्ययन करने का मुख्य अर्थ और प्रयोजन मात्र कुछ परीक्षांए पास करना न होकर होता है कुछ नया सीखना। जीवन का अर्थ समझकर, उसको सफल-सार्थक बनाने के लिए व्यक्ति जो कुछ भी सीखता है, व्यापक अर्थों में उस सबको विद्या ही कहते हैं और उसकी अर्थी- अर्थात इच्छुक को भी व्यापक अर्थ में विद्यार्थी कहा जाता है।
विद्यार्थी-काल की तुलना कच्ची मिट्टी के लोंदे से की जा सकती है। कच्ची मिट्टी को तोड़-मरोडक़र उससे कुछ भी बनाया जा सकता है। यह बनाने वाले पर निर्भर करता है कि वह कुछ कुरूप बनाता है या स्वरूपवान। ठीक उसी प्रकार अपने मन-मस्तिष्क को मोडक़र एक विद्यार्थी भी अपने आपको चाहे जैसा बना ले।
जीवन में सीखने और पढऩे के साथ-साथ अपनी सभी प्रकार की आदतों को भी संतुलित बनाए रख्ने का प्रत्यन्न करना विद्यार्थी का एक एकर्तव्य माना जाता है। जीवन और समाज में व्यक्ति अपनी अच्छी-बुरी आदतों एंव व्यवहार से ही पहचाना जाता है। इस प्रकार सब प्रकार की बुराइयों से दूर रहकर मन-मस्तिष्क के विकास के लिए खूबर पढऩा-लिखना, स्वास्थ्य-सौंदर्य के लिए खेलना-कूदना, सब प्रकार की चिंताओं से मुक्त रहकर अपना चरित्र-निर्माण करना ही हम विद्यार्थी जीवन के मुख्य कर्तव्य कह सकते हैं। ऐसा करके ही वह भविष्य का अच्छा नागरिक भी बन सकता है।
कर्तव्य-पालन के बाद ही अधिकार का प्रश्न उइता है। हमारी विचार में जहां तक विद्यार्थी के अधिकारिों का प्रश्न है, एक वाक्य में कहा जा सकता है कि स्वस्थ मन-मस्तिष्क से विद्या अध्ययन करना और इस सबके लिए उचित व्यचवस्स्था की मांग करना ही उसका मुख्य कर्तव्य है। यही मुख्य अधिकार भी है। वह अच्छी और व्यावहारिक शिक्षा-व्यवस्था की मांग भी कर सकता है। घर-परिवार, समाज और शासन सभी से वह अपने रहन-सहन, खान-पान, अच्छा वातावरण बनाने को कहने का भी अधिकारी है। वह यह भी मांग कर सकता है कि उसके शिक्षक आदर्श आचरण और व्यवहार वाले व्यक्ति हों। समाज उसको व्यावहारिक रूप में दक्ष बनाने के लिए सुशासन और अनुशासन का आदर्श प्रदान करें।
इस प्रकार स्पष्ट है कि समाज के प्रत्येक प्राणी के सामने विद्यार्थी को भी कईं प्रकार के कर्तव्य एंव अधिकार प्राप्त हैं। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज का विद्यार्थी तथाकथित और मनमानी अधिकारों की दुहाई तो देता है, विद्या-अध्ययन जैसे प्राथमिक कर्तव्य की ओर उसका ध्यान ठीक से नहीं जा पाता। यही कारण है कि आज शिक्षा समाप्त करने के बाद जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करने पर भी युवक प्रसन्न एंव संतुलित नहीं होता, उसके अधिकार स्वत: ही समाप्त हो ाजया करते हैं। जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी काल में यदि हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन बनाए रखना सीख लेते हैं, तो कोई कारण नहीं कि हमारा अपना और हमारे समाज-देश का भविष्य उज्जवल न हो। आज का युवा विद्यार्थी वर्ग इस तथ्य को पीछे समझने लगा है, तो उसे भविष्य के लिए यह एक शुभ लक्ष्य स्वीकारा जा सकता है।
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