वर्तमान शिक्षा प्रणाली
Vartman Shiksha Pranali
शिक्षा का वास्तविक अर्थ होता है, कुछ सीखकर अपने को पूर्ण बनाना। इसी दृष्टि से शिक्षा को मानव-जीवन की आंख भी कहा जाता है। वह आंख कि जो मनुष्य को जीवन के प्रति सही दृष्टि प्रदान कर उसे इस योज्य बना देती है कि वह भला-बुरा सोचकर समस्त प्रगतिशील कार्य कर सके। उचित मानवीय जीवन जी सके। पर क्या आज का विद्यार्थी जिस प्रकार की शिक्षा पा रहा है, शिक्षा प्रणाली का जो रूप जारी है, वह यह सब कर पाने में समथ्र है? उत्तर निश्चय ही ‘नहीं’ है। वह इसलिए कि आज की शिक्षा-प्रणाली बनाने का तो कतई नहीं। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतना वर्षों बाद भी, कहने को शिक्षा बहुत अधिक विस्तार हो जाने पर भी, इस देश के व्यक्ति बहुत कम प्रतिशत आमतौर पर साक्षर से अधिक कुछ नहीं हो पाए। वह अपने आपको सुशिक्षित तो क्या सामान्य स्तर का शिक्षित होने का दावा भी नहीं कर सकता। इसका कारण है, आज भी उसी घिसी-पिटी शिक्षा-प्रणाली का जारी रहना कि जो इस देश को कुंठित करने, अपने साम्राज्य चलाने के लिए कुछ मुंशी या क्लर्क पैदा करने के लिए लार्ड मैकाले ने लागू की थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लगभग पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी उसके न बदल पाने के कारण ही शिक्षा ही वास्तविकता के नाम पर यह देश मात्र साक्षरता के अंधेरे में भटक रहा है। वह भी विदेशी माध्यम से, स्वेदेशीपन के सर्वथा अभाव में।
यह शिक्षा और इसके साथ जुड़ी परीक्षा-प्रणाली शिक्षार्थी की वास्तविक योज्याताओं का जागरण तो क्या, अनुभव तक नहीं होने देती। कई-कई विषयों का बोझ लदा होने के कारण व्यक्ति पारंगत किसी में भी नहीं हो पाता, विभिन्न विषयों को मात्र गिना ही सकता है। फिर यह शिक्षा-प्रणाली बोझित और महंगी भी इतनी अधिक हो गई। दिन-प्रतिदिन और भी होती जा रही है कि प्रत्येक परिवार और व्यक्ति उसे सहार नहीं सकता। इस मानसिकता को किसी भी तरह से स्वस्थ एंव सुखद नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह प्रणाली सुशिक्षा की जड़ें काट रही है।
शिक्षा का अर्थ होता है, योज्य नागरिक उत्पन्न करना, जीवन को जीने योज्य बनाना, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग करना। क्योंकि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने दायित्वों के निर्वाह में सफल नहीं हो पा रही, अत: इसे बदलना नितांत जरूरी है। सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा को पढऩे वालों की रूचियों के अनुकूल बनाने की है। फिर उसका पाठयक्रम और विषयों का चयन ऐसा होना चाहिए कि जो हमें जीवन-व्यवहारों में निपुण बना सके-न कि केवल साक्षर। जैसे कि आजकल कुछ विषय केवल परीक्षा पास करने के लिए ही पढ़ाए जाते हैं। चाहे वे जीवन-व्यवहार के लिए उपयोगी और छात्र की रुचि-इच्छा के अनुकूल हों या न हों, ऐसे विषयों का पठन-पाठन बंद होना चाहिए।
अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि यदि वास्तव में हम देश और जाति का भला चाहते हैं, तो यथासंभव शीघ्र इस उधार की शिक्षा प्रणाली को बदलकर इसके स्थान पर देश-काल की जरूरत को अनुरूप किसी नई प्रणाली को जारी करना आवश्यक है, नहीं तो हम धीरे-धीरे अपनी अस्मिता में चुककर कहीं के भी नहीं रह जाएंगे।
Vartman Shiksha Pranali
शिक्षा का वास्तविक अर्थ होता है, कुछ सीखकर अपने को पूर्ण बनाना। इसी दृष्टि से शिक्षा को मानव-जीवन की आंख भी कहा जाता है। वह आंख कि जो मनुष्य को जीवन के प्रति सही दृष्टि प्रदान कर उसे इस योज्य बना देती है कि वह भला-बुरा सोचकर समस्त प्रगतिशील कार्य कर सके। उचित मानवीय जीवन जी सके। पर क्या आज का विद्यार्थी जिस प्रकार की शिक्षा पा रहा है, शिक्षा प्रणाली का जो रूप जारी है, वह यह सब कर पाने में समथ्र है? उत्तर निश्चय ही ‘नहीं’ है। वह इसलिए कि आज की शिक्षा-प्रणाली बनाने का तो कतई नहीं। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतना वर्षों बाद भी, कहने को शिक्षा बहुत अधिक विस्तार हो जाने पर भी, इस देश के व्यक्ति बहुत कम प्रतिशत आमतौर पर साक्षर से अधिक कुछ नहीं हो पाए। वह अपने आपको सुशिक्षित तो क्या सामान्य स्तर का शिक्षित होने का दावा भी नहीं कर सकता। इसका कारण है, आज भी उसी घिसी-पिटी शिक्षा-प्रणाली का जारी रहना कि जो इस देश को कुंठित करने, अपने साम्राज्य चलाने के लिए कुछ मुंशी या क्लर्क पैदा करने के लिए लार्ड मैकाले ने लागू की थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लगभग पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी उसके न बदल पाने के कारण ही शिक्षा ही वास्तविकता के नाम पर यह देश मात्र साक्षरता के अंधेरे में भटक रहा है। वह भी विदेशी माध्यम से, स्वेदेशीपन के सर्वथा अभाव में।
यह शिक्षा और इसके साथ जुड़ी परीक्षा-प्रणाली शिक्षार्थी की वास्तविक योज्याताओं का जागरण तो क्या, अनुभव तक नहीं होने देती। कई-कई विषयों का बोझ लदा होने के कारण व्यक्ति पारंगत किसी में भी नहीं हो पाता, विभिन्न विषयों को मात्र गिना ही सकता है। फिर यह शिक्षा-प्रणाली बोझित और महंगी भी इतनी अधिक हो गई। दिन-प्रतिदिन और भी होती जा रही है कि प्रत्येक परिवार और व्यक्ति उसे सहार नहीं सकता। इस मानसिकता को किसी भी तरह से स्वस्थ एंव सुखद नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह प्रणाली सुशिक्षा की जड़ें काट रही है।
शिक्षा का अर्थ होता है, योज्य नागरिक उत्पन्न करना, जीवन को जीने योज्य बनाना, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग करना। क्योंकि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने दायित्वों के निर्वाह में सफल नहीं हो पा रही, अत: इसे बदलना नितांत जरूरी है। सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा को पढऩे वालों की रूचियों के अनुकूल बनाने की है। फिर उसका पाठयक्रम और विषयों का चयन ऐसा होना चाहिए कि जो हमें जीवन-व्यवहारों में निपुण बना सके-न कि केवल साक्षर। जैसे कि आजकल कुछ विषय केवल परीक्षा पास करने के लिए ही पढ़ाए जाते हैं। चाहे वे जीवन-व्यवहार के लिए उपयोगी और छात्र की रुचि-इच्छा के अनुकूल हों या न हों, ऐसे विषयों का पठन-पाठन बंद होना चाहिए।
अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि यदि वास्तव में हम देश और जाति का भला चाहते हैं, तो यथासंभव शीघ्र इस उधार की शिक्षा प्रणाली को बदलकर इसके स्थान पर देश-काल की जरूरत को अनुरूप किसी नई प्रणाली को जारी करना आवश्यक है, नहीं तो हम धीरे-धीरे अपनी अस्मिता में चुककर कहीं के भी नहीं रह जाएंगे।
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