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Friday, July 5, 2019

प्रगतिवाद pragativaad hindi essay 500 words

July 05, 2019
प्रगतिवाद

हिंदी-साहित्य का  इतिहास में आधुनिक काल में छायावाद के बाद आरंभ के चौथे चरण को प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित साहित्य-रचना का युग स्वीकार किया गया है। इसका आरंभ सन 1936 के आस-पास से स्वीकारा जाता है। इससे पहले वाले छायावादी-युग की कविता कल्पना-प्रधान थी, पर अब कविगण कल्पना के आकाश से उतरकर जीवन के यथार्थ से प्रेरणा लेकर धरती पर पैर जमाने लगे। फलस्वरूप कविता की जो नई धारा चली, वह प्रगतिवादी काव्यधारा कहाई। गद्य-साहित्य के विधायक रूपों में भी अब काल्पनिक आदर्शों के स्थान पर यथार्थ समस्याओं और प्रश्नों का चित्रण होने लगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रगतिवादी चेतना ने साहित्य के गद्य-पद्यात्मक सभी रूपों को समान स्तर पर प्रभावित किया।

मानव अपने मूल स्वभाव से ही परिवर्तनशील और प्रगतिवादी माना जाता है। फिर दूसरे विश्व-युद्ध के प्रभाव ओर परिणामस्वरूप अब जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आने लगा था। फ्रांस और रूस से होने वाली जन-क्रांतियों ने तो मानव-चेतना को प्रभावित किया ही, रूसो, वाल्तेयर, कार्लमाक्र्स और फ्रॉयड आदि चिंतकों के विचारों ने भी जीवन और समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की प्रेरणा प्रदान की।  कवि और साहित्यकार किसी भी रूढ़ परंपरा के अधिक दिनों तक अनुयायी बनकर नहीं रह सकते। उनकी चेतना जीवन में आने वाले परिवर्तनों से अनुप्राणित होकर स्वत: ही नव्यता की ओर अग्रसर होती रहती है। उसी नव्यता की ओर अग्रसर होने वाली प्रवृति ने ही छायावादी युग के अंतराल से एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया। वह प्रवृत्ति थी मानव-प्रगतियों का दमन, शोषित-पीडि़त मानव के अधिकारों की ओर जीवन-समाज का ध्यान आकर्षित करना एंव नई सहज परिवर्तित बौद्धिक-वैज्ञानिक प्रगतियों की ओर मानव-चेतना को उन्मुख करने का सशक्त प्रयास। परिणामस्वरूप छायावादी स्वरों के मध्य से ही जो नया स्वर प्रस्फुटित किया गया।’ यह मान्यता स्पष्ट संकेत करती है कि छायावादी वायवता के प्रतिकारस्वरूप ही हिंदी-काव्य क्षेत्र में प्रगतिवाद का आरंभ एंव विकास संभव हो सका। यह एक निश्चित सत्य है।

ऊपर यह कहा जा चुका है कि प्रगतिवाद का आरंभ सन 1936 के आस-पास हुआ था। उसके चार वर्षों अर्थात सन 1940 तक इसा क्रमश: विकसित रूप सामने आने लगा। उसके बाद से आज तक की हिंदी-काव्य की यात्रा वास्तव में प्रगतिवाद के विभिन्न एंव विविध आयामों की यात्रा कही जा सकती है।


 कवि और लेखक आम जनों को सभी तरह की कुंठाओं से छुटकारा दिलाने का प्रयास भी करते हैं। यही कारण हे कि प्रगतिवादी साहित्य में कल्पना को कतई महत्व नहीं दिया जाता। उसके स्ािान पर जीवन में यथार्थ का ही उदघाटन किया जाता है। सभी परंपरागत विषयों की युगानुकूल नवीन एंव उपयोगितावादी व्याख्यांए की जाती हैं ताकि सभी प्रकार के आडंबरों, पाखंडों और कुरूपताओं से जीवन को मुक्ति मिल सके। ध

प्रगतिवादी काव्य-चेतना में यथार्थ बोध और यथार्थ चित्रण के नाम पर कई तरह की कमियां भी रेखाांकित की जाती है।  केवल निराशाओं और कुंठाओं का चित्रण करने वाला साहित्य भी सच्चे अर्थों में प्रगतिवादी नहीं हो सकता। इसके स्थान पर मानवता का आशावादी यथार्थ स्वर मुखरित होना चाहिए। हमारे विचार में कलात्मकता को तिलांजलि देकर, भाषा की भास्वरता के स्थान पर मनगढं़त बातों को पश्रय देकर भी मानव-प्रगतियों का वास्तविक काव्यात्मक चित्रण संभव नहीं हो सकता। इसी प्रकार वर्ग-संघर्ष की तलवार लटकाए रखना भी उचित नहीं कहा जा सकता। इन बातों का निराकरण करके इस तथ्य का ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि जीवन और साहित्य आत्मिक स्तर पर स्वत: स्फूर्त ढंग से प्रगतिवादी हुआ करते हैं। आवश्यकता है कि उस स्वत: स्फूर्त अस्मिता को हमेशा जगाए और उजागर रखा जाए। तभी प्रगतिवाद का वास्तविक लक्ष्य पाया जा सकता है।

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