विद्यार्थी और राजनीति vidyarthi aur rajniti 550 words
आयु में अध्ययन का एक विशिष्ट भाग विद्यार्थी जीवन कहलाता है। इस अवस्था में जीवन को सफल बनोन के लिए अनेक प्रकार की विद्यांए प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति ही सामान्यतया विद्यार्थी कहलाता है। इस कार्य के लिए प्राय: मानव-आयु का एक भाग अर्थात 25 वर्षो तक की आयु भी निर्धारित कर दी गई है। इस काल को भविष्य की तेयारी का काल भी कहा जाता है। जैसे अच्छी फसल लेने के लिए एक किसान को हर प्रकार से परिश्रम करके खेत को तैयार कर, फिर अच्छे बीज बोने, सिंचाई तथा देखभाल जैसे कई कार्य पूरी तैयारी के साथ करने पड़ते हैं, उसी प्रकार भविष्य में जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी को भी अनेकविध शिक्षणात्मक कार्य करने पड़ते हैं।आजकल विलासिता, फैशल, गुंडागर्दी और राजनीति-रूपी खरपतवार शिक्षा क्षेत्र में इस सीमा तक उग आती हे कि कई बार अच्छे-भले लोगों तक का भविष्य भी उजड़-पुजडक़र रहह जाया करता है। यही सब देख-सुन आज यह स्वाभाविक प्रश्न उठाया जाता है कि क्या विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं?
प्रश्न निश्चय ही सामयिक और महत्वपूर्ण है। इसी कारण विद्यार्थी राजनीति में भाग ले अथवा नहीं, इस प्रश्न को लेकर आज कई मत-वाद प्रचलित हैं। एक मत वालों का कहना है कि विद्यार्थी को सभी प्रकार की राजनीति में अवश्य भाग लेना चाहिए। इस मत वाले मानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन क्योंकि भविष्य की तैयारी का जीवन है, अत: राजनीति में भाग लेकर आज का विद्यार्थी कल का राजनेता बनने और देश की बागडोर संभालने की पूरी तैयारी कर सकता है।
इसके विपरीत दूसरे मत के लोग यह मानते हैं कि विद्यार्थी को राजनीति में एकदम भाग नहीं लेना चाहिए। वह इसलिए कि आज की राजनीति अपने पवित्र लक्ष्यों से भटक चुकी है, अत: उसका अंग बनने पर विद्यार्थी के भी भटक जाने का खतरा अधिक बना रहता है। अक्सर देखा गया है कि राजनीतिक आंदोलन कई बार हिंसक हो उठते हैं। भाग लेने वाले का कोई अंग-भंग हो सकता है उसे जेल-यात्रा भी करनी पड़ सकती है। ये बातें उसके मन को अशांत बनाए रखकर शारीरिक और मानसिक स्पर पर अपंग भी बना सकती है। समय, शक्ति और धन का दुरुपयोग हो सकता है। जो उसे कहीं का भी नहीं रहने देसकता।
उपर्युक्त दोनों मतों की तुलना में तीसरा मत और दृष्टिकोण समन्यवादी है। इस मत के मानने वालों का कहना है कि विद्यार्थी को राजनीति के मामले में केवल सीखने और शिक्षा लेने वाला दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे शिखा का अंग मानकर देश-विदेश की सभी प्रकार की विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन तो अवश्य करते रहना चाहि, पर सक्रिय राजनीति में उसकका भाग न लेना ही उचित है। मतलब यह है कि अपने शिक्षा-काल में विद्यार्थी राजनीति के मामले में भी मात्र विद्यार्थी ही रहे, उसका सक्रिय अंग न बने। यही उचित एंव लाभदायक है।
उपर्युक्त तीनों मतों में से हमारे विचार में आज की विषम परिस्थितियों में विद्यार्थी के संदर्भ में तीसरा समन्वयवादी मत या विचार ही अधिक उपयुक्त है। विद्यार्थी वास्तव में शिक्षार्थी है ओर शिक्षा का अर्थ केवल किताबी शिक्षा नहीं, केवल परीक्षांए पास करना ही नहीं है, बल्कि जहां से जो कुछ भी सीखने को मिलता है, वह सीखकर भविष्य की तैयारी करनाा है। यह तैयारी राजनीति में सक्रिय सहयोग जैसे झंझटों से संभव नहीं हो सकती, जिज्ञासु तटस्थता से ही संभव और पूर्ण हो सकती है। अत-राजनीति हो या कोई अन्य मामला, विद्यार्थी का सभी मामलों में कुछ सीखकर भविष्य की तैयारी ही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए। सभी जगह उसका विद्यार्थी बना रहना ही शुभ एंव हितकर हो सकता है।
आयु में अध्ययन का एक विशिष्ट भाग विद्यार्थी जीवन कहलाता है। इस अवस्था में जीवन को सफल बनोन के लिए अनेक प्रकार की विद्यांए प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति ही सामान्यतया विद्यार्थी कहलाता है। इस कार्य के लिए प्राय: मानव-आयु का एक भाग अर्थात 25 वर्षो तक की आयु भी निर्धारित कर दी गई है। इस काल को भविष्य की तेयारी का काल भी कहा जाता है। जैसे अच्छी फसल लेने के लिए एक किसान को हर प्रकार से परिश्रम करके खेत को तैयार कर, फिर अच्छे बीज बोने, सिंचाई तथा देखभाल जैसे कई कार्य पूरी तैयारी के साथ करने पड़ते हैं, उसी प्रकार भविष्य में जीवन की सफलता के लिए विद्यार्थी को भी अनेकविध शिक्षणात्मक कार्य करने पड़ते हैं।आजकल विलासिता, फैशल, गुंडागर्दी और राजनीति-रूपी खरपतवार शिक्षा क्षेत्र में इस सीमा तक उग आती हे कि कई बार अच्छे-भले लोगों तक का भविष्य भी उजड़-पुजडक़र रहह जाया करता है। यही सब देख-सुन आज यह स्वाभाविक प्रश्न उठाया जाता है कि क्या विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं?
प्रश्न निश्चय ही सामयिक और महत्वपूर्ण है। इसी कारण विद्यार्थी राजनीति में भाग ले अथवा नहीं, इस प्रश्न को लेकर आज कई मत-वाद प्रचलित हैं। एक मत वालों का कहना है कि विद्यार्थी को सभी प्रकार की राजनीति में अवश्य भाग लेना चाहिए। इस मत वाले मानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन क्योंकि भविष्य की तैयारी का जीवन है, अत: राजनीति में भाग लेकर आज का विद्यार्थी कल का राजनेता बनने और देश की बागडोर संभालने की पूरी तैयारी कर सकता है।
इसके विपरीत दूसरे मत के लोग यह मानते हैं कि विद्यार्थी को राजनीति में एकदम भाग नहीं लेना चाहिए। वह इसलिए कि आज की राजनीति अपने पवित्र लक्ष्यों से भटक चुकी है, अत: उसका अंग बनने पर विद्यार्थी के भी भटक जाने का खतरा अधिक बना रहता है। अक्सर देखा गया है कि राजनीतिक आंदोलन कई बार हिंसक हो उठते हैं। भाग लेने वाले का कोई अंग-भंग हो सकता है उसे जेल-यात्रा भी करनी पड़ सकती है। ये बातें उसके मन को अशांत बनाए रखकर शारीरिक और मानसिक स्पर पर अपंग भी बना सकती है। समय, शक्ति और धन का दुरुपयोग हो सकता है। जो उसे कहीं का भी नहीं रहने देसकता।
उपर्युक्त दोनों मतों की तुलना में तीसरा मत और दृष्टिकोण समन्यवादी है। इस मत के मानने वालों का कहना है कि विद्यार्थी को राजनीति के मामले में केवल सीखने और शिक्षा लेने वाला दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे शिखा का अंग मानकर देश-विदेश की सभी प्रकार की विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन तो अवश्य करते रहना चाहि, पर सक्रिय राजनीति में उसकका भाग न लेना ही उचित है। मतलब यह है कि अपने शिक्षा-काल में विद्यार्थी राजनीति के मामले में भी मात्र विद्यार्थी ही रहे, उसका सक्रिय अंग न बने। यही उचित एंव लाभदायक है।
उपर्युक्त तीनों मतों में से हमारे विचार में आज की विषम परिस्थितियों में विद्यार्थी के संदर्भ में तीसरा समन्वयवादी मत या विचार ही अधिक उपयुक्त है। विद्यार्थी वास्तव में शिक्षार्थी है ओर शिक्षा का अर्थ केवल किताबी शिक्षा नहीं, केवल परीक्षांए पास करना ही नहीं है, बल्कि जहां से जो कुछ भी सीखने को मिलता है, वह सीखकर भविष्य की तैयारी करनाा है। यह तैयारी राजनीति में सक्रिय सहयोग जैसे झंझटों से संभव नहीं हो सकती, जिज्ञासु तटस्थता से ही संभव और पूर्ण हो सकती है। अत-राजनीति हो या कोई अन्य मामला, विद्यार्थी का सभी मामलों में कुछ सीखकर भविष्य की तैयारी ही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए। सभी जगह उसका विद्यार्थी बना रहना ही शुभ एंव हितकर हो सकता है।
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