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Monday, July 1, 2019

छायावाद : प्रवृतियां और विशेषतांए chayavad pravaitiya aur visheshtaaye hindi essay 470 words

July 01, 2019
छायावाद : प्रवृतियां और विशेषतांए chayavad pravaitiya aur visheshtaaye hindi essay 470 words



संवत 1900 से आरंभ होने वाले आधुनिक काल का तीसरा चरण छायावाद के नाम से याद किया जाता है। इसे अंग्रेजी काव्य में चलने वाले स्वच्छंदतावाद का परिष्कृत स्वरूप माना गया है। उस युग में विद्यमान अनेक प्रकार के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक बंधनों के प्रति युवकों के मन में उत्पन्न असंतोष के भाव ने हिंदी में इस काव्यधारा को जन्म दिया। ऐसा प्राय सभी स्वीकार करते हैं। इससे पहले वाले युग में कविता में सुधार और उपदेश का भाव मुख्य रहने के कारण कविता रूखी-सूखी बनकर रह गई थी। उससे छुटकारा पाने के लिए कवि प्रकृति के सुंदर रूपों का चित्रण करने लगे। मुख्य रूप से इस प्रकृति-प्रधान कविता को ही आगे चलकर छायावादी कविता कहा जाने लगा।

छायावाद पहले युद्ध की समाप्ति के बाद आरंभ हुआ और लगभग दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति तक इसका प्रवाह निरंतर प्रवाहित होता रहा। यों उसके बाद भी श्रीमती महादेवी वर्मा जैसी सशक्त कवयित्री इसी धारा को अपनाए रहीं। पर अन्य कवि धीरे-धीरे इस राह से हटते गए। इस प्रकार सौंदर्य-बोध और प्रकृति-साधना को ही छायावाद की आधारभूत चेतना कहा जा सकता है। ‘हिंदी-साहित्य का विवचनात्मक इतिहास’ के लेखक डॉ. तिलकराज शर्मा के अनुसार ‘छायावाद एक ऐसी काव्य-विधा है, जिसने प्रकृति को माध्यम बनाकर मानव-जीवन के समस्त सूक्ष्म भावों, सौंदर्य-बोध एंव चेतना-गत विद्रोह को स्वरूप, आकार एंव स्वर प्रदान किया है। यहां राष्ट्रीयता का उन्मेष भी है और संस्कृति का स्तर-स्पंदन भी है। प्रेम की अनवरत भूख भी है और आध्यात्मिकता का सरल स्फुरण थी।

छायावादी काव्यधारा में कवियों की व्यक्तिगत चेतनाओं को सामूहिकता का प्रतिनिधित्व प्रदान करके चितारा गया है। आरंभ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे छायावाद को मात्र एक शैली मानकर इसके प्रति अपना असंतोष भाव प्रकट करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी इसका सर्वागीण महत्व स्वीकार करके कहना पड़ा। छायावादी शाखा के भीतर धीरे-धीरे काव्यशैली का अच्छा विकास हुआ है। इसमें भावावेश की आकुल व्यंजना, लाक्षणिक वैचित्र्य, प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता, कोमल पद-विन्याद आदि का स्वरूप संगठित करने वाली सामग्री दिखाई देती है। इन पंक्तियों में आचार्य शुक्ल ने ‘प्रत्यक्षीकरण’ कहा है, वह हमारे विचार में प्रकृति के मानवीकरण की प्रवृति ही है, जिसे छायावाद की एक प्रमुख प्रवृति एंव विशेषता दोनों स्वीकार किया जाता है।



ऐसा माना जाता है कि छायावाद का आरंभ जिस पलायनवादी भावना से हुआ था, अंत में भी कुछ वैसा ही संयोग बन गया। बौद्धिकता और गहरी दार्शनिकता ने इस कविता को काफी कठिन बनाकर आम आदमी की पहुंच से परे कर दिया है। सौंदर्यबोध भी आम व्यक्ति को प्रभावित कर पाने में समर्थ नहीं रहा।इन प्रमुख कमियों के कारण छायावाद जनता का विषय नहीं बन पाया। विशुद्ध भाव-सृष्टि और सौंदर्य के वैविध्यपूर्ण चित्रण के कारण छायावाद का ऐतिहासिक महत्व तो निर्विवाद सिद्ध है। इसके विकास के आयाम भी विभिन्न एंव विविध कहे-माने जाते हैं।पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और श्रीमती महादेवी वर्मा इस धारा के दो  प्रमुख आधारस्तंभ हैं। जो हो, हिंदी-साहित्य के इतिहास में इसस धारा का स्थान और महत्व चिरस्थायी है। ‘सुंदर’ का आधान करने वाली विशुद्ध कविता ही इसे कहा जा सकता है।

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