मनुष्य का जीवन संसार में सबसे अच्छा, ऊंचा और आदर्श माना जाता है। सामान्य रूप से इस मनुष्य जीवन के चार भाग या अवस्थांए मानी गई हैं। शैशव के सुकुमार क्षण बीतते विद्यार्थी-जीवन का आरंभ हो जाया करता है, जिसे मनुष्य जीवन की सबसे बढक़र अच्छी और आदर्श अवस्था स्वीकार किया गया है। लेकिन दुख एंव खेद के साथ मानना और कहना पड़ता है कि आज का विद्यार्थी अपने मान्य आदर्शों की राह से भटककर स्वंय अपने, अपने घर-परिवार और सारे समाज के लिए एक प्रकार का असहनीय बोझ बनता जा रहा है। निश्चय ही इस बात को अच्छी नहीं कहा जा सकता। आदर्शविहीन जीवन यों भी बेकार एंव असफल ही स्वीकार किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति शायद चाहता तो यही है कि वह किसी-न-किसी आदर्श को अपनाकर चले। पर कई बार बुरी संगत में पडक़र, कई बार अज्ञानवश, कभी-कभी जान-बूझकर, और कभी-कभी आकस्मिक परिस्थितियों की अबूझ मार से पीडि़त होकर वह इच्छित आदर्श अपना नहीं पाता।
आज हमारा मान-समाज जिस आपाधापी और निहित स्वार्थों से भरे माहौल में निवास कर रहा है, इसके चलते आदर्श की बातें तो बहुत की कही जाती हैं। पर उन पर चलता कोई नहीं। जब समाज के अनुसार लोग ही आदर्शों का निभाव नहीं कर पा रहे, तो फिर सुकुमार एंव चंचल मति वाले विद्यार्थी वैसा कर पाएंगे, यह आशा की ही किस आधार पर जा सकती है? इतना सब सत्य होते हुए भी एक तथ्य यह भी ध्यातव्य है कि परिस्थिति हो या प्रकृति, मनुष्य कभी किसी से भी हार मानकर चुपचाप बैठ जाने वाला प्राणी नहीं है। वह बारंबार पराजित होकर भी अपनी अंतिम विनय के लिए प्रयत्न करता ही रहा और रहेगा। उसी प्रयत्न के बल पर ही एक-न-एक दिन वह अपना आदर्शन पा भी लेगा। अपने भावी नागरिकों अर्थात विद्यार्थियों के जीवन को उच्च आदर्शों से संपन्न बनाने का लक्ष्य भी उसके निश्चय से बहुत दूर नहीं रह सकता।
सामान्यतया आदर्श विद्यार्थी कैसा हुआ करता, या हो सकता है, उससे किस-किस बात और व्यवहार की आशा की जाती है। संक्षेप में इस सब पर भी चर्चा कर लेनी चाहिए। आदर्श विद्यार्थी हमेशा अपने सहपाठियों-साथियों की सहायता करने को तत्पर रहा करता है। इनके अतिरिक्त भी आवश्यकता पडऩे पर वह बाकी सबकी सहायता करने को प्रसन्नतापूर्वक तैयार रहता है। किसी की सहायता करके उसे घमंड नहीं, बल्कि आत्मिक शांति मिला करती है। वह अपने गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों के प्रति हमेशा नम्रतापूर्वक सम्मान का व्यवहार करने वाला होता है। समान आयु वालों के प्रति मित्रतापूर्ण और अपने से छोटों के साथ स्नेह करने वाला, जरूरन पडऩे पर उनका पथ-प्रदर्शक भी सिद्ध हुआ करता है। वह घर में हो, पार्क या बाजार में हो या फिर अपने विद्यालय के खेल के मैदान अथवा कथा-भवन में, सब जगह उसका व्यवहार एक-सा विवेकपूर्ण रहता है। भीतर-बाहर से एक-सा होना-एक सा व्यवहार करना आदर्श विद्यार्थियों का ही नहीं, आदर्श मनुष्यता का भी लक्षण है।
आदर्श विद्यार्थी अपना हर काम पूरे मनोयोग के साथ उचित समय और स्थान पर किया करता है। वह सुबह समय पर उठकर सुबह की क्रियाओं से निवृत होकर, नहा-धोकर अच्छा नाश्ता करता है। स्कूल जाने का समय न हुआ हो तो थोड़ा पढ़-लिख लेता है। समय पर स्कूल-कॉलेज जाता, हर विषय की कक्षा में ध्यान से पढ़ता-लिखता, ध्यान से पढ़े-लिखे का स्मरण करता है। अपने आराम और मनोरंजन का भी खाने-पीने और पढऩे-लिखने की तरह ही उचित ध्यान रखा करता है। मतलब यह है कि अपना, घर-परिवार और स्कूल-कॉलेज का प्रत्येक कार्य ठीक समय पर मन लगाकर करने वाला ही आदर्श विद्यार्थी के साथ-साथ आदर्श मनुष्य भी हुआ करता है।
आदर्श विद्यार्थी और व्यक्ति बेकार की गपबाजी में अपना तथा दूसरों का समय बरबाद नहीं किया करता। दूसरों के कामों में नाहक दखल नहीं देता। सिनेमा-दूरदर्शन के पीछे पड़े रह अपनी आंखें, स्वास्थ्य और समय को नष्ट नहीं होने देता। ऐसे लोगों की संख्या जब किस देश-जाति में बढ़ जाया करती है, तभी वे सब प्रकार से उन्नत होकर दूसरों के लिए भी आदर्श बन जाया करते हैं। इस बात में तनिक भी संदेह नहीं। संदेह इसमें भी नहीं कि वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रीयता एंव समूची मानवता की बुनियाद बन सकेगा।
ऊपर बताई गई, आदर्श विद्यार्थी बनने की प्रमुख बातों के साथ-साथ कुछ ऐसी अन्य बातें एंव कार्य भी हो सकते हैं कि जिन्हें करके एक विद्यार्थी आदर्श बन एंव उदाहरण स्थापित कर सकता है। ध्यान रहे, विद्यार्थी शब्द की व्याख्या विद्या ग्रहण करने के नाम पर मात्र कुछ पुस्तकें रट-रटाकर पढ़ और परीक्षांए पास कर लेना ही नहीं हुआ करता। उसका वास्तविक अर्थ होता है तन-मन-मस्तिष्क और आत्मा का इस सीमा तक विकास कर लेना कि व्यक्ति नीक-क्षीर-विवेक कर सकने वाले हंस के समान बन सके।
आदर्शन विद्यार्थी का स्वप्नशील होना भी आवश्यक है। पर उसमें उन सपनों को सत्य, सजीव, साकार करने की लगन, प्रयास एंव सक्रियता भी रहनी चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब तन-मन दोनों स्वस्थ, समर्थ एंव सुंदर हों। स्वस्थ, सुंदर शरीर में ऐसी समर्थ आत्मा निवास कर रही हो कि जो देखे सपने साकार करने की क्षमता रखती हो। इस प्रकार आदर्शन विद्यार्थी का कार्य उचित-सार्थक विद्यांए ग्रहण करके अपने मन-मस्तिष्क, भावलोक का समुचित विकास-विस्तार करना तो होता ही है, अपने तन को भी सब प्रकार से स्वस्थ, बलिष्ठ और सुंदर बनाए रखना होता है।
आदर्श विद्यार्थी अहंकार-पीडि़त कभी नहीं होता, वह समय और स्थिति को पहचानकर ही अपना प्रत्येक कार्य किया करता है। सभी की सेवा-सहायता और सत्कार्य करने के लिए तत्पर रहा करता है। बेकार की बातों और कामों की तरफ उसका ध्यान कभी नहीं जाता। शिक्षा एंव जीवन में करणीय हर कार्य के लिए उसके मन में आनंदोत्साह भरा रहा करता है। अपने देश-जाति के प्रत्येक प्रतीक को अपना मान उसकी रक्षा-संवद्र्धना को कर्तव्य मानता है। हर प्रकार से ‘आम-गौरव’ के भाव से भरा रहना ही आदर्श विद्यार्थी का व्यक्त स्वरूप एंव सदलक्षण भी है।
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