रेगिस्तान की यात्रा
भारत में हिमालय भी है और रेगिस्तान भी, रेता के टीले भी भी हैं रेगिस्तान में। पानी को तरसता है रेगिस्तान। नदियों हैं नितांत अभा है वहां। मीलों तक जनहित प्रदेश वर्षों से सोया हुआ है। दिन में तपता रेगिस्तान रात में अत्यंत मधुर हो जाता है तपे हुए तीबे रात को ठंडे हो जाते हैं। नंगे पांव उन पर चलते हुए अदभुत सुकून मिला है और मन में मरूभूमि का आतंरिक-सौंदर्य महक उठता है।
यह पत्र था-अंबा बीठू का। उसने उसे आमंत्रित किया था। दीपावली वह उसके साथ मनाए यह उसकी हार्दिक इच्छा थी। उसको पत्र की भाषा ने मोह लिया वह पत्र पढ़ रही थी। यहां पवन के पदचिनह देखे जा सकते हैं। यहां पवन को अपने-आप से बातें करते हुए पकड़ जा सकता है। पवन को यहां गुस्सा आता है तब वह तेवर बदलकर आक्रामक रुख अपना लेता है और कभी-कभी तो घंटों धूल-भरी आंधी चलती रहती है। जब बहुत गरमी हो जाती है तब भी आंधी उठती है और कुछ समय बाद गर्म मौसम के बिगड़ालू रूप को हिम-सा मोम कर देती है और गरमी छूमंतर हो जाती है। यहां टीबे उड़ते हैं यहां टीबे बनते हैं।
यही तो वह आकर्षण था जो उसे नदियों के इलाकें से ठीक रेगिस्तान में ले आया। सितंबर जा रहा था। मौसम में कुछ-कुछ खुशनुमापन था। दिन गरम नहीं था। रात अवश्य कुछ त्यादा ठंड थी वह रेल ही में धूल से साक्षात्कार कर चुकी थी। धूल ट्रेन में बह रही थी-नदी में उठती लहरों की तरह।
वह रात मैं कभी नहीं भूल सकूंगी। रात पूर्णिमा की थी। चांद पूरी तरह से ज्योत्सना बिखेर रहा था। हम पांच लोग ऊंटों पर थे और शहर में बाहर मरूभूमि के विस्तृत मेदान की छवि का आनंद ले रहे थे। ऊंट धीमे-धीमे चल रहे थे। ऊंट की सवारी का यह पहला अवसर था। बड़ा मजा आ रहा था। मंद-मंद पवन बह रही थी। मन चंचल हो उठा था। हिचकोले खाते जा रहे थे हम। आंखों के सामने था रजत चांदनी का अंतहीन मैदान। शरीर में अदभुत गुदगुदी हो रही थी। जहां तक दृष्टि जाती थी बालू ही बालू दृष्टिगोचर हो रही थी। कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि ऐसा मनोरम हो सकता है रेगिस्तान।
चांदनी रात में नौका-विहार से अधिक आनंद आ रहा था इस समय। मन में कविता फूट रही थी।
सन्नाटे में मरूभूमि का आतंरिक मनमुक्त पवन की मद्धिम-मद्धिम सरगमदूर-दराज तक रजत के ढेरऔ मखमली एकांत का वार्तालापमहका रहा था अंग-अंग के आर्द्र प्राण।
हम बहुत दूर निकल आए थे। अब चारों ओर रजत चोटियां थीं और थी हिमानी धरती। हम लोग एक जगह उतरे। एक और तलही-सा था मैदान बहुत नीचे था वह मैदान। डर लग रहा था नीचे देखते हुए। उसने पूछा ‘तुझे मरूभूमि में तैरना आता है’ ‘नहीं’ मैंने कहने के साथ ही सिर हिला दिया था।
‘मैं सिखलाए देती हूं।’ उसने उसका हाथ पकडक़र बहुत प्यार से कहा, ‘वन-टू-थ्री।’ इसी के साथ मैं उसके साथ लुढक़ चली थी बहुत तेजी से। मैं रपटे जा रही थी और ऊपर खड़े लोग ताली बजा रहे थे। जब मैंने नीचे पहुंचकर ऊपर देखा तब लगा कि मैं नीचे खड़ी मसूरी के कैम्टीफॉल् को देख रही हूं। कैसा गजब का अनुभव था वह।
वह मुझे देखकर मुस्कराए चली जा रही थी। कुछ रुककर बोली, हवा में तो पक्षी उड़ लेते हैं, पानी में पक्षी, पशु और इन्सान तीनों तैर लेते हैं, परंतु मरूभूमि पर केवल हम और तुम यानि इंस जैसे ही उड़ाने भर सकते हैं, ऊपर से नीचे आने के लिए।
कैसा रोमांचक था यह दृश्य। मेरा हृदय जोरों से धडक़ रहा था। मैं ऊपर देखकर चकित थी। इस फिसलने में कितना आनंद आया था। वह कैसी विचित्र अनुभूति थी।
रेत पर सब बैठ चुके थे जब हम लोग ऊपर आए। उसकी मम्मी बता रही थी, चांदनी रात में मरूभूमि का आनंद ओर उस सरस आनंद के साथ खीर का अपना स्वाद है। समय रात्रि के बारह का हो रहा था। मैं चौंक पड़ी। मैंने पूछा ‘यह सब?’
‘आज की रात रेगिस्तान के नाम।’ वह चहक उठी ‘आज यहीं रहेंगे। सुबह तडक़े लौट चलेंगे। क्यों, रहेगा न आनंद।’
‘वाकई रहेगा’ मेरा मन उछलकर बोला।
‘अच्छा अब खीर खा लो।’ उसकी मां की आवाज थी। हम लौट पड़े थे स्वप्न लिए प्यार से, झूमते हुए। हमारे चारों ओर रजत ज्योत्सना थी नवचंचला-सी मदमाती और मुस्कान बिखेरती हुई।
चलते समय मैंने कहा था ‘ओह यह है तुम्हारा रेगिस्तान। सम्मोहन-भरा और जादू-भरा मोहक स्थान, सदा यार रहेगा, इन प्राणों का अमरसंगीत। तपते दिन की ठंडी रातों का अपना कमाल।’ गाड़ी खिसकने लगी थी। विदाई की बेला शुरू हो गई थी, चुपचाप महक बिखेरती हुई। अपलक देख रहा था तन-मन को बांधने वाला मरू का प्राण।
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