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Sunday, May 12, 2019

विवाह एक सामाजिक संस्था vivaah ek samajik sanstha hindi essay 700 words

May 12, 2019
विवाह एक सामाजिक संस्था
विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। स्वस्थ तथा भागतिक समाज की स्थापना में उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। वह समाज का महोत्सव है। विवाह बिना समाज की कल्पना बिखर जाएगी और समाज पशुवत हो जाएगा। समाज मानव जाति के हजारों वर्षों के अनवरत प्रयत्नों, संघर्षों, उपलब्धियों, अविष्कारों आदि का परिणाम है। वह जंगल-दर्शन से हटकर समूह में रहने के लिए विवाह आवश्यक है। लेकिन आज विवाह अभिशाप बन रहा है क्योंकि इसे सामाजिक संस्था मानते हुए भी धर्मोन्मुखी बना हुआ है।
विवाह धर्म के आधार पर होते हैं। विवाह सनातन धम्र की रीति से होगा, इस्लाम धर्म की रीति से होगा, ईसाई धर्म की रीति से होगा। प्राय: होगा वह धर्म का चक्कर लगाकर ही। सरकारी विवाह अर्थात कोर्ट मैरिज बहुत कम होती है, यह बात अपने देश के वैवाहिक आंकड़ों को मद्देनजर रखते हुए सहज कही जा सकती है।
विवाह को धािर्मक पर्व क्यों माना जाए? इस्लाम धर्म एक पुरुष के कई विवाह यानी बहुपत्नीवाद का समर्थन करता है और तलाक को पुरुष के सर्वथा अनुकूल बनाता है। इसमें स्त्रियों की  स्वतंत्रता तथा समानता को खतरा पैदा होता है और वे आजीवन भयांशका में जकड़ी हुई पुरुष के अन्याय तथा अत्याचार को सहन करती है। इसी तरह हिंदू या सनातन रीति से होने वाले विवाह में दहेज सामने आता है जिससे कन्या पक्ष की स्थिति बहुत कमजोर हो जाती है ओर स्त्री जीवन सिसकता रहता है। सवाल उठता है कि दहेज क्यों? विवाह तो जीवन का स्वैच्छिक और मांगलिक स्वप्न है। उसमें लेन-देन कैसा? उसमें मोलतोल क्यों? नारी-पुरष की समता की बात को यह आघात क्यों? धर्म के नाम पर यह असमानता क्यों?
आज लोकतांत्रिक व्यवस्था है, समाजवादी समाज है, फिर नारी पर पाशविक अत्याचार क्यों? दहेज समाज की रीढ़ की हड्डी तोड़ रहा है। समाज में नरक की स्थिति पैदा कर रहा है। ताकि यह समाज मनुष्य के रहने लायक नहीं रह जाए।
आज व्यक्ति का सर्वाधिक ध्यान ध्यान धनकेंद्रित है। वह सह-जीवनीय अस्तित्व की अपेक्षा धनोपलब्धि को अधिक महत्व देता है। पति-पत्नी के जो संबंध हैं। उनकी भी वह उपेक्षा करता है और चाहता है कि पत्नी के साथ वह खासा धन भी पा सके। इस कारण आज शादी-विवाह मोल-तोल पर आ टिका है। उसमें लडक़े-लडक़ी की पसंद या नापसंद का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
आज वरवधुए जल रही हैं। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि जलायी जा रही हैं। दहेज इसका मुख्य कारण है। जब व्यक्ति इतने जघन् य कृत्य पर उतर आया है तब कैसे सुखी समाज की स्थापना हो सकती है। इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
विवाह एक सामाजिक संस्था है और जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण उतसव से संबंध है। यह व्यक्ति-जीवन का सर्वाधिक मांगलिक पर्व हैं अज वह अभिशाप सिद्ध हो रहा है। इसका कारण है कि मानवीय ऊष्मा खत्म हो रही है और सौहार्द-प्रेम की सदप्रवृतियों का निरंतर तेजी से ह्रास हो रहा है। सह-जीवन की भावना कम हो रही है जीवन में धन-प्रधान हो गया है। चेतन का ह्रास हुआ है और जड़ का पूजन हो रहा है। व्यक्ति ओर समाज दोनों अनजाने ही रसातल की ओर जा रहे हैं, इस सत्य की अनुभूति के बाद भी इस ओर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है। पत्नी को पति या उसके घर वाले दहेज के कारण मार दें, इससे वीभत्स और कुत्सित कर्म क्या हो सकता है? हालांकि सरकार ने दहेज को रोकने के लिए कानून बनाया है। उसने तस्करी रोकने के लिए कानून बनाया है। वह आतंकवाद को रोकने के लिए प्राणपण से लगी हुई है। उसमें उसे कहां तक सफलता मिल पा रही है, यह एक दूसरी बात है।
यह सवाल मात्र सरकार से नहीं है। सब कुछ सरकार ही करेगी तो समाज क्या करेगा। और फिर लोकतंत्र का क्या अर्थ होगा। नागरिक कर्तव्य और उत्तरदायित्व की लोकतंत्र में क्या भूमिका रहेगी दहेज जैसा सवाल समाज के मानसिक स्वास्थ्य से सीधा जुड़ा हुआ है। सरकार की अपेक्षा समाज की जिम्मेदारी अधिक है। समाज यदि अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करेगा तो इस प्रकार की समस्याओं का भी अंत कभी नहीं होगा। इसके लिए समाज को पहल करनी चाहिए ओर इस अभिशाप से बचने के लिए सबको जी-तोड़ संघर्ष करना चाहिए तभी इस समरूा से समाज को मुक्ति मिल सकती है और एक स्वस्थ समाज की स्थापना संभव हो सकती है।

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