अनेकता में एकता
यूनान मिस्त्र रोमां सब मिट गये जहां से,
अब तक मगर है बाकह नामो-निशां हमारा।।
इस कथन में दंभोक्ति नहीं है बल्कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा का यर्थाथ है, जो युगों-युगांे से स्वच्छ अविरल धारा के समान प्रवाहमान रही है और आगे भी रहेगी। भारत में जो लोग पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि जब हम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर थे, तब ये पश्चिम वाले सभ्य समाज से दूर असभ्य और बर्बर जीवन जी रहे थे। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी समृद्ध सांस्कृतिक कहलाती है। लेकिन आचार-विचार तो उसका बाह्म रूप है, भीतरी रूप से मानव का शेष प्रकृति के साथ तादात्म्य है। ।
संस्कृति को परिभाषित करते हुए डाॅ. राधाकृष्णन ने लिखा है-’’संस्कृति विवके बुद्धि का, जीवन को भली प्रकार जान लेने का नाम है। डाॅ. मंगलदेव शास्त्री के अनुसार-’’किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन व्यापारों में या सामाजिक संबंधों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदन करने वाले उन आदर्शों की सृष्टि को ही संस्कृति समझना वाहिए। संस्कृति हमारा पीछज्ञ जन्म-जन्मांतरांे तक करती है। अपने यहां कहावत है, जिसका जैसा संस्कार होता है, उसका वैसा ही पुर्नजन्म होता है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है।
हमें यह भी जानना चाहिए कि सभ्यता मनुष्य की भौतिक जीवन की उपयोगिता से संबंधित है और संस्कृति मानव की मानवता से। भारतीय संस्कृति वैविघ्यपूर्ण है। भाषा, धार्मिक विचार, जाति, बहुजातीय समाज सभी में विविधता है, किंतु इनमंे प्रारम्भ से ही समन्यात्मकता भी है। भारत में प्राचीन काल से विदेशियों का आना शुरू हो गया था और कुछ अन्तराल के बाद सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक जारी रहा। आर्य, यवन, यूनानी, शक, हूण, कुषाण, अरबवासी, तुर्क, मंगोल, अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच आदि भारत आए। लेकिन सभी आक्रमणकारी अन्ततः भारतीय बन गए।
भारत में अब भी अनेक जातियों है, अनेक बोलियां हैं। भारत को प्रायः भाषा का अजायबघर कहा जाता है। यहां लगभग 180 बोलियां बोली जाती हैं। इस सबके बावजूद भारतवासी एक हैं। भारत की समन्वय की भावना एकरूपता की भावना पर आधारित है। अनेकता में एकता का अनुसंधान हमने प्रारम्भ से किया है। भारत की एकता वह सम्पूर्णता है जो मां की तरह सतत काम-दुधा है, उसको नेहरू ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है- श्ज्ीमतम पे नदपजल ंउपकेज कतपअमतेपजल पद प्दकपंण्श्
वेदों में भी कहा गया है-’वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा ’सर्वभूते हिते रतः। सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न अंगों में इस एकता का प्रतिबिम्ब नजर आता है। यह अनेकता में एकता विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों में परिलक्षित होती है।
भारतीय समाज में एकरूपता का पुट है। यद्यपि भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन और बौद्ध आदि सामाजिक इकाइयां हैं, जिनके अपने-अपने सामाजिक आचार-विचार, जीवन-दर्शन, धार्मिक विश्वास, परम्परा और रीति-रिवाज हैं, फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध उदार तथा सहिष्णु हैं।
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